हे प्रभु, कब तक?
परिचय
क्या आपके जीवन में कभी ऐसा समय आया है जब आपने यह पूछा हो कि, ‘हे प्रभु, कब तक? ये संघर्ष और निराशा ‘कब तक’ चलेगी? ये आर्थिक समस्याएं कब तक चलेंगी? ये स्वास्थ्य की परेशानी कब तक रहेगी? संबंधों में ये मुश्किलें कब तक रहेंगी? मैं इस व्यसन से कब तक जूझता रहूँगा? यह गंभीर लालसाएं कब तक रहेंगी? इस नुकसान से उभरने में मुझे कितना समय लगेगा?
कभी - कभी मैं और पिपा सेंट पीटर के ब्राइटन में जाते हैं, जो कि हमारी ही कलीसिया है। एक सभा के अंत में, एक महिला मेरे पास आई और मुझे बताया कि सैंतीस वर्षों से वह अपने पति के लिए प्रार्थना कर रही है मसीह पर विश्वास लाने के लिए। इन सैंतीस सालों तक वह कहती रही, ‘कब तक, हे प्रभु, कब तक?’
जब 2009 में सेंट पीटर फिर से खुला, तो उसके पति ने तय किया कि वह उसके साथ चर्च आना पसंद करेगा। जिस पल वह सेंट पीटर में आया, उसने महसूस किया कि वह घर आ गया है और उसने ‘नया जन्म’ पाया है। अब वह चर्च से प्यार करता है और हर हफ्ते चर्च में आता है। परमेश्वर ने उसकी पत्नी की विनती सुनी। हमारी पूरी बातचीत में वह अपने चेहरे पर आनंद व्यक्त करते हुए यही दोहरा रही थी: ‘कब तक, हे प्रभु, कब तक?’ अंत में, उसने अपनी प्रार्थना का उत्तर पाया।
‘कब तक, हे प्रभु, कब तक?’ हमारे आज के भजन के आरंभिक शब्द हैं। दाऊद लगातार चार बार पुकारता है, ‘कब तक ….?’ (भजन संहिता 13:1-2)।
ऐसा समय भी आता है जब ऐसा प्रतीत होता है कि परमेश्वर हमें भूल गए हैं (पद - 1अ)। ऐसा लगता है कि उन्होंने अपना चेहरा छिपा लिया है (पद - 1ब)। किसी अबोध्य कारण की वजह से हम अपने साथ उनकी उपस्थिति महसूस नहीं कर पाते। हर दिन संघर्ष भरा दिन लगता है – अपने विचारों से लड़ते हुए (पद - 2अ)। हर दिन दु:खों से भरा लगता है (पद - 2ब)। ऐसा लगता है कि हम हार रहे हैं और शत्रु हम पर जय पा रहा है (पद - 2क)।
ऐसे समय में आप कैसी प्रतिक्रिया करेंगे?
भजन संहिता 13:1-6
संगीत निर्देशक के लिये दाऊद का एक पद।
13हे यहोवा, तू कब तक मुझ को भूला रहेगा?
क्या तू मुझे सदा सदा के लिये बिसरा देगा कब तक तू मुझको नहीं स्वीकारेगा?
2 तू मुझे भूल गया यह कब तक मैं सोचूँ?
अपने ह्रदय में कब तक यह दु:ख भोगूँ?
कब तक मेरे शत्रु मुझे जीतते रहेंगे?
3 हे यहोवा, मेरे परमेश्वर, मेरी सुधि ले! और तू मेरे प्रश्न का उत्तर दे!
मुझको उत्तर दे नहीं तो मैं मर जाऊँगा!
4 कदाचित् तब मेरे शत्रु यों कहने लगें, “मैंने उसे पीट दिया!”
मेरे शत्रु प्रसन्न होंगे कि मेरा अंत हो गया है।
5 हे यहोवा, मैंने तेरी करुणा पर सहायता पाने के लिये भरोसा रखा।
तूने मुझे बचा लिया और मुझको सुखी किया!
6 मैं यहोवा के लिये प्रसन्नता के गीत गाता हूँ,
क्योंकि उसने मेरे लिये बहुत सी अच्छी बातें की हैं।
समीक्षा
आगे बढ़ते रहें
आज के भजन में हम चार बातों को देखते हैं जिसे आपको हर मुश्किल घड़ी में करते रहना चाहिये।
- प्रार्थना करते रहें
दाऊद परमेश्वर को पुकारता रहा, ‘हे मेरे परमेश्वर यहोवा मेरी ओर ध्यान दे और मुझे उत्तर दे, मेरी आंखों में ज्योति आने दे’ (पद - 3)। वह परमेश्वर के सामने अपना दिल उंडेल देता है। यह दूर दिखाई दे तब भी प्रार्थना करना मत छोड़िये।
- भरोसा बनाए रखें
‘परन्तु मैं ने तो तेरी करूणा पर भरोसा रखा है;’ (पद - 5अ)। जब चीज़ें अच्छी हो रही हों, तो अपेक्षाकृत आसान लगता है, लेकिन विश्वास की परीक्षा तब होती है जब ऐसा प्रतीत होता है कि चीज़ें अच्छी नहीं हो रही हैं।
- आनंद मनाते रहें
वह परीक्षा में आनंद नहीं मनाता, बल्कि परमेश्वर के उद्धार में। वह कहता है, ‘मेरा हृदय तेरे उद्धार से मगन होगा’ (पद - 5ब)। ‘मैं तेरे बचाव का उत्सव मना रहा हूँ’ (पद - 5ब, एम.एस.जी.)।
- आराधना करते रहें
वह हर चीजों से गुज़र रहा था इसके बावजूद, दाऊद परमेश्वर की भलाई को देख पाया: ‘ मैं परमेश्वर के नाम का भजन गाऊंगा, क्योंकि उसने मेरी भलाई की है’ (पद - 6ब)। परमेश्वर ने उसके लिए जो भी किया था वह सब उसे याद है।
जब आप परमेश्वर की स्तुति और आराधना करने लगते हैं, तो वह आपकी समस्याओं का समाधान लाते हैं। कभी - कभी, मैंने अपने जीवन में पीछे देखना और परमेश्वर को धन्यवाद देना लाभदायक पाया है कि उन्होंने मुझे खुद के अनेक संघर्षों, निराशाओं और शोक से उभारा है और यह याद करना लाभदायक होता है कि उन्होंने इन सब में मुझ पर किस तरह भलाई की है।
प्रार्थना
प्रभु, आज मैं आपकी आराधना करता हूँ। मेरे प्रति आपकी भलाई के लिए धन्यवाद। आने वाले सभी संघर्षों में आपके अटल प्रेम पर मैं विश्वास करता हूँ।
मत्ती 15:10-39
10 उसने भीड़ को अपने पास बुलाया और उनसे कहा, “सुनो और समझो कि 11 मनुष्य के मुख के भीतर जो जाता है वह उसे अपवित्र नहीं करता, बल्कि उसके मुँह से निकला हुआ शब्द उसे अपवित्र करता है।”
12 तब यीशु के शिष्य उसके पास आये और बोले, “क्या तुझे पता है कि तेरी बात का फरीसियों ने बहुत बुरा माना है?”
13 यीशु ने उत्तर दिया, “हर वह पौधा जिसे मेरे स्वर्ग में स्थित पिता की ओर से नहीं लगाया गया है, उखाड़ दिया जायेगा। 14 उन्हें छोड़ो, वे तो अन्धों के अंधे नेता हैं। यदि एक अंधा दूसरे अंधे को राह दिखाता है, तो वे दोनों ही गढ़े में गिरते हैं।”
15 तब पतरस ने उससे कहा, “हमें अपवित्रता सम्बन्धी दृष्टान्त का अर्थ समझा।”
16 यीशु बोला, “क्या तुम अब भी नही समझते? 17 क्या तुम नहीं जानते कि जो कुछ किसी के मुँह में जाता है, वह उसके पेट में पहुँचता है और फिर पखाने में निकल जाता है? 18 किन्तु जो मनुष्य के मुँह से बाहर आता है, वह उसके मन से निकलता है। यही उसको अपवित्र करता है। 19 क्योंकि बुरे विचार, हत्या, व्यभिचार, दुराचार, चोरी, झूठ और निन्दा जैसी सभी बुराईयाँ मन से ही आती हैं। 20 ये ही हैं जिनसे कोई अपवित्र बनता है। बिना हाथ धोए खाने से कोई अपवित्र नहीं होता।”
ग़ैर यहूदी स्त्री की सहायता
21 फिर यीशु उस स्थान को छोड़ कर सूर और सैदा की ओर चल पड़ा। 22 वहाँ की एक कनानी स्त्री आयी और चिल्लाने लगी, “हे प्रभु, दाऊद के पुत्र, मुझ पर दया कर। मेरी पुत्री पर दुष्ट आत्मा बुरी तरह सवार है।”
23 यीशु ने उससे एक शब्द भी नहीं कहा, सो उसके शिष्य उसके पास आये और विनती करने लगे, “यह हमारे पीछे चिल्लाती हुई आ रही है, इसे दूर हटा।”
24 यीशु ने उत्तर दिया, “मुझे केवल इस्राएल के लोगों की खोई हुई भेड़ों के अलावा किसी और के लिये नहीं भेजा गया है।”
25 तब उस स्त्री ने यीशु के सामने झुक कर विनती की, “हे प्रभु, मेरी रक्षा कर!”
26 उत्तर में यीशु ने कहा, “यह उचित नहीं है कि बच्चों का खाना लेकर उसे घर के कुत्तों के आगे डाल दिया जाये।”
27 वह बोली, “यह ठीक है प्रभु, किन्तु अपने स्वामी की मेज़ से गिरे हुए चूरे में से थोड़ा बहुत तो घर के कुत्ते ही खा ही लेते हैं।”
28 तब यीशु ने कहा, “स्त्री, तेरा विश्वास बहुत बड़ा है। जो तू चाहती है, पूरा हो।” और तत्काल उसकी बेटी अच्छी हो गयी।
यीशु का बहुतों को अच्छा करना
29 फिर यीशु वहाँ से चल पड़ा और झील गलील के किनारे पहुँचा। वह एक पहाड़ पर चढ़ कर उपदेश देने बैठ गया।
30 बड़ी-बड़ी भीड़ लँगड़े-लूलों, अंधों, अपाहिजों, बहरे-गूंगों और ऐसे ही दूसरे रोगियों को लेकर उसके पास आने लगी। भीड़ ने उन्हें उसके चरणों में धरती पर डाल दिया। और यीशु ने उन्हें चंगा कर दिया। 31 इससे भीड़ के लोगों को, यह देखकर कि बहरे गूंगे बोल रहे हैं, अपाहिज अच्छे हो गये, लँगड़े-लूले चल फिर रहे हैं और अन्धे अब देख पा रहे हैं, बड़ा अचरज हुआ। वे इस्राएल के परमेश्वर की स्तुति करने लगे।
चार हज़ार से अधिक को भोजन
32 तब यीशु ने अपने शिष्यों को पास बुलाया और कहा, “मुझे इस भीड़ पर तरस आ रहा है क्योंकि ये लोग तीन दिन से लगातार मेरे साथ हैं और इनके पास कुछ खाने को भी नहीं है। मैं इन्हें भूखा ही नहीं भेजना चाहता क्योंकि हो सकता है कि कहीं वे रास्ते में ही मूर्छित होकर न गिर पड़ें।”
33 तब उसके शिष्यों ने कहा, “इतनी बड़ी भीड़ के लिए ऐसी बियाबान जगह में इतना खाना हमें कहाँ से मिलेगा?”
34 तब यीशु ने उनसे पूछा, “तुम्हारे पास कितनी रोटियाँ हैं?”
उन्होंने कहा, “सात रोटियाँ और कुछ छोटी मछलियाँ।”
35 यीशु ने भीड़ से धरती पर बैठने को कहा और उन सात रोटियों और मछलियों को लेकर उसने परमेश्वर का धन्यवाद किया 36 और रोटियाँ तोड़ीं और अपने शिष्यों को देने लगा। फिर उसके शिष्यों ने उन्हें आगे लोगों में बाँट दिया। 37 लोग तब तक खाते रहे जब तक थक न गये। फिर उसके शिष्यों ने बचे हुए टुकड़ों से सात टोकरियाँ भरीं। 38 औरतों और बच्चों को छोड़कर वहाँ चार हज़ार पुरुषों ने भोजन किया। 39 भीड़ को विदा करके यीशु नाव में आ गया और मगदन को चला गया।
समीक्षा
यीशु का अनुसरण करते रहें
किसी भी प्रार्थना का विलंब होना, परमेश्वर के वायदों को बेअसर नहीं कर सकता। परमेश्वर हमेशा हमारी स्थितियों को तुरंत नहीं बदलते। बीमारी और तकलीफें पूरी तरह से नाश नहीं की जाएंगी जब तक यीशु वापस न आ जाएं। ये कहानियाँ और हमारे चमत्कार के अनुभव और चंगाई, उसका पूर्वाभास हैं जो बाद में होने वाला है।
परमेश्वर की भलाई, श्रेष्ठता से यीशु में प्रगट की गई है। एक बार फिर, इस पद्यांश में, हम यीशु की अद्भुत भलाई को और वे पाप, बीमारी और तकलीफों से कैसे निपटते हैं उसे देखते हैं।
- अपने मन को नया बनाते रहिये
यीशु कहते हैं कि हमारी परेशानी सामान्य चीज़ों को लेकर नहीं हैं, जैसे खाना (पद - 11)। खाना अंदर जाता है और आपके शरीर से बाहर निकल जाता है (पद - 17)। जो चीज़ आपको नुकसान पहुँचा सकती है वह अंदर से आती है – ‘जो मुंह से निकलता है, वही मनुष्य को अशुद्ध करता है ’ (पद - 17)। वास्तविक परेशानी आपके दिल में पाप है: ‘कि कुचिन्ता, हत्या, परस्त्रीगमन, व्यभिचार, चोरी, झूठी गवाही और निन्दा मन ही से निकलतीं है। यही हैं जो मनुष्य को अशुद्ध करती हैं, ’ (पद - 19-20अ)।
यीशु के शब्दों की चुनौती यह है कि हालाँकि हम शरीर से हत्या या व्यभिचार नहीं करते, हम सब पहली ही बाधा में गिर जाते हैं। सबसे पहली बात जो यीशु ने कही है वह है ‘बुरे विचार’। हमारे पाप का हल, बाहरी रीति - रिवाज़ नहीं हैं, जिस तरह से फरीसी संघर्ष कर रहे थे। केवल परमेश्वर ही मेरे मन को बदल सकते हैं। मुझे बदलने और पवित्र करने के लिए मुझे पवित्र आत्मा की मदद चाहिये।
- चंगाई के लिए प्रार्थना करते रहें
- अपने बच्चों को तड़पता हुआ देखने से ज़्यादा कष्टदायक कोई चीज नहीं है। कनानी स्त्री की बेटी भयानक दर्द में थी (पद - 22)। यह स्त्री अवश्य ही अपने दिल में रो रही होगी। 'कब तक, हे प्रभु, कब तक?’ लेकिन वह चंगाई के लिए विनती करती रही और उसने इस सच्चाई से निराश होने से इंकार कर दिया कि यीशु उसकी प्रार्थना का उत्तर देते नज़र नहीं आ रहे थे। ‘पर वह आई, और उसे प्रणाम करके कहने लगी; हे प्रभु, मेरी सहायता कर’ (पद - 25)।
- यीशु ने देखा कि उसका विश्वास बड़ा है और उसने उसकी बेटी को चंगा किया (पद - 28)। वह ‘लंगड़ों, अंधों, लूलों, गूँगों और अन्य कई लोगों को चंगा करते रहे’ (पद - 30)।
- भूखों को तृप्त करते रहें
- यीशु ने केवल बीमारों को ही चंगा नहीं किया (पद - 22 से आगे), बल्कि उन्हें भूख से पीड़ित लोगों की भी बेहद चिंता थी। वह कहते हैं, ‘मुझे इस भीड़ पर तरस आता है; क्योंकि वे तीन दिन से मेरे साथ हैं और उन के पास कुछ खाने को नहीं; और मैं उन्हें भूखा विदा करना नहीं चाहता; ’ (पद - 32)।
- यीशु बहुत थोड़े में, बहुत कुछ करने में सामर्थी थे। उन्हें बहुत कम भोजन दिया गया जिससे उन्होंने बड़ी भीड़ को खाना खिलाया। यदि आप उन्हें छोटी सी मात्रा देंगे, अपने जीवन और अपने स्रोतों की, तो वह उन्हें बढ़ाने में और महानता से उनका उपयोग करने में सामर्थी हैं।
- यदि यीशु ने थोड़ी सी भूख के लिए इतनी चिंता की, तो वह लाखों - करोड़ों लोगों की कितनी चिंता करेंगे जो आज भी दुनिया में भूख और कुपोषण से पीड़ित हैं। यीशु के अनुयायी होने के नाते आज हमें भूखों के लिए कार्य करना है।
- निश्चित ही हर कोई यीशु को मानेंगे। लेकिन कई फरीसी खेदित हुए (पद - 12) जब उन्होंने यीशु के बारे में सुना। यीशु ने जो कहा था यदि उससे लोग खेदित हुए, यदि आज मसीही जन और चर्च कहने लगेंगे तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि बहुत से लोग खेदित होंगे।
प्रार्थना
प्रभु, पीड़ित लोगों के लिए मुझे अपनी करूणा दीजिये, चाहें वे बीमारी से या भूख से या किसी अन्य कारण से पीड़ित हैं। आइये, पवित्र आत्मा।
उत्पत्ति 43:1-44:34
याकूब ने बिन्यामीन को मिस्र जाने की आज्ञा दी
43देश में भूखमरी का समय बहुत ही बुरा था। वहाँ कोई भी खाने की चीज नहीं उग रही थी। 2 लोग वह सारा अन्न खा गए जो वे मिस्र से लाये थे। जब अन्न समाप्त हो गया, याकूब ने अपने पुत्रों से कहा, “फिर मिस्र जाओ। हम लोगों के खाने के लिए कुछ और अन्न खरीदो।”
3 किन्तु यहूदा ने याकूब से कहा, “उस देश के प्रसाशक ने हम लोगों को चेतावनी दी है। उसने कहा है, ‘यदि तुम लोग अपने भाई को मेरे पास वापस नहीं लाओगे तो मैं तुम लोगों से बात करने से मना भी कर दूँगा।’ 4 यदि तुम हम लोगों के साथ बिन्यामीन को भेजोगे तो हम लोग जाएंगे और अन्न खरीदेंगे। 5 किन्तु यदि तुम बिन्यामीन को भेजने से मना करोगे तब हम लोग नहीं जाएंगे। उस व्यक्ति ने चेतावनी दी कि हम लोग उसके बिना वापस न आएं।”
6 इस्राएल (याकूब) ने कहा, “तुम लोगों ने उस व्यक्ति से क्यों कहा, कि तुम्हारा अन्य भाई भी है। तुम लोगों ने मेरे साथ ऐसी बुरी बात क्यों की?”
7 भाईयों ने उत्तर दिया, “उस व्यक्ति ने सावधानी से हम लोगों से प्रश्न पूछे। वह हम लोगों तथा हम लोगों के परिवार के बारे में जानना चाहता था। उसने हम लोगों से पूछा, ‘क्या तुम लोगों का पिता अभी जीवित है? क्या तुम लोगों का अन्य भाई घर पर है?’ हम लोगों ने केाल उसके प्रश्नों के उत्तर दिए। हम लोग नहीं जानते थे के वह हमारे दूसरे भाई को अपने पास लाने को कहेगा।”
8 तब यहूदा ने अपने पिता इस्राएल से कहा, “बिन्यामीन को मेरे साथ भेजो। मैं उसकी देखभाल करूँगा हम लोग मिस्र अवश्य जाएंगे और भोजन लाएंगे। यदि हम लोग नहीं जाते हैं तो हम लोगों के बच्चे भी मर जाएँगे। 9 मैं विश्वास दिलाता हूँ कि वह सुरक्षित रहेगा। मैं इसका उत्तरदायी रहूँगा। यदि मैं उसे तुम्हारे पास लौटाकर न लाऊँ तो तुम सदा के लिए मुझे दोषी ठहरा सकते हो। 10 यदि तुमने हमें पहले जाने दिया होता तो भोजन के लिए हम लोग दो यात्राएँ अभी तक कर चुके होते।”
11 तब उनके पिता इस्राएल ने कहा, “यदि यह सचमुच सही है तो बिन्यामीन को अपने साथ ले जाओ। किन्तु प्रशासक के लिए कुछ भेंट ले जाओ। उन चीजों में से कुछ ले जाओ जो हम लोग अपने देश में इकट्ठा कर सके हैं। उसके लिए कुछ शहद, पिस्ते, बादाम, गोंद और लोबान ले जाओ। 12 इस समय, पहले से दुगुना धन भी ले लो जो पिछली बार देने के बाद लौटा दिया गया था। संभव है कि प्रशासक से गलती हुई हो। 13 बिन्यामीन को साथ लो और उस व्यक्ति के पास ले जाओ। 14 मैं प्रार्थना करता हूँ कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर तुम लोगों की उस समय सहायता करेगा जब तुम प्रशासक के सामने खड़े होओगे। मैं प्रार्थना करता हूँ कि वह बिन्यामीन और शिमोन को भी सुरक्षित आने देगा। यदि नहीं तो मैं अपने पुत्र से हाथ धोकर फिर दुःखी होऊँगा।”
15 इसलिए भाईयों ने प्रशासक को देने के लिए भेंटें लीं और उन्होंने जितना धन पहले लिया था उसका दुगना धन अपने साथ लिया। बिन्यामीन भाईयों के साथ मिस्र गया।
भाई यूसुफ के घर निमन्त्रित होते हैं
16 मिस्र में यूसुफ ने उनके साथ बिन्यामीन को देखा। यूसुफ ने अपने सेवक से कहा, “उन व्यक्तियों को मेरे घर लाओ। एक जानवर मारो और पकाओ। वे व्यक्ति आज दोपहर को मेरे साथ भोजन करेंगे।” 17 सेवक को जैसा कहा गया था वैसा किया। वह उन व्यक्तियों को यूसुफ के घर लाया।
18 भाई डरे हुए थे जब वे यूसुफ के घर लाए गए। उन्होंने कहा, “हम लोग यहाँ उस धन के लिए लाए गए हैं जो पिछली बार हम लोगों की बोरियों में रख दिया गया था। वे हम लोगों को अपराधी सिद्ध करने लिए उनका उपयोग करेंगे। तब वे हम लोगों के गधों को चुरा लेंगे और हम लोगों को दास बनाएँगे।”
19 अतः यूसुफ के घर की देख—रेख करने वाले सेवक के पास सभी भाई गए। 20 उन्होंने कहा, “महोदय, मैं प्रतिज्ञापूर्वक सच कहता हूँ कि पिछली बार हम आए थे। हम लोग भोजन खरीदने आए थे। 21-22 घर लौटते समय हम लोगों ने अपनी बोरियाँ खोलीं और हर एक बोरी में अपना धन पाया। हम लोग नहीं जानते कि उनमें धन कैसे पहुँचा। किन्तु हम वह धन आपको लौटाने के लिए साथ लाए हैं और इस समय हम लोग जो अन्न खरीदना चाहते हैं उसके लिए अधिक धन लाए हैं।”
23 किन्तु सेवक ने उत्तर दिया, “डरो नहीं, मुझ पर विश्वास करो। तुम्हारे पिता के परमेश्वर ने तुम लोगों के धन को तुम्हारी बोरियों में भेंट के रूप में रखा होगा। मुझे याद है कि तुम लोगों ने पिछली बार अन्न का मूल्य मुझे दे दिया था।”
सेवक शिमोन को कारागार से बाहर लाया। 24 सेवक उन लोगों को यूसुफ के घर ले गया। उसने उन्हें पानी दिया और उन्होंने अपने पैर धोए। तब तक उसने उनके गधों को खाने के लिए चारा दिया।
25 भाईयों ने सुना कि वे यूसुफ के साथ भोजन करेंगे। इसलिए उसके लिए अपनी भेंट तैयार करने में वे दोपहर तक लगे रहे।
26 यूसुफ घर आया और भाईयों ने उसे भेंटें दीं जो वे अपने साथ लाए थे। तब उन्होंने धरती पर झुककर प्रणाम किया।
27 यूसुफ ने उनकी कुशल पूछी। यूसुफ ने कहा, “तुम लोगों का वृद्ध पिता जिसके बारे में तुम लोगों ने बताया, ठीक तो है? क्या वह अब तक जीवित है?”
28 भाईयों ने उत्तर दिया, “महोदय, हम लोगों के पिता ठीक हैं। वे अब तक जीवित है” और वे फिर यूसुफ के सामने झुके।
29 तब यूसुफ ने अपने भाई बिन्यामीन को देखा। (बिन्यामीन और यूसुफ की एक ही माँ थी) यूसुफ ने कहा, “क्या यह तुम लोगों का सबसे छोटा भाई है जिसके बारे में तुम ने बताया था?” तब यूसुफ ने बिन्यामीन से कहा, “परमेश्वर तुम पर कृपालु हो।”
30 तब यूसुफ कमरे से बाहर दौड़ गया। यूसुफ बहुत चाहता था कि वह अपने भाईयों को दिखाए कि वह उनसे बहुत प्रेम करता है। वह रोने—रोने सा हो रहा था, किन्तु वह नहीं चाहता था कि उसके भाई उसे रोता देखें। इसलिए वह अपने कमरे में दौड़ता हुआ पहुँचा और वहीं रोया। 31 तब यूसुफ ने अपना मुँह धोया और बाहर आया। उसने अपने को संभाला और कहा, “अब भोजन करने का समय है।”
32 यूसुफ ने अकेले एक मेज पर भोजन किया। उसके भाईयों ने दूसरी मेज पर एक साथ भोजन किया। मिस्री लोगों ने अन्य मेज पर एक साथ खाया। उनका विश्वास था कि उनके लिए यह अनुचित है कि वे हिब्रू लोगों के साथ खाएं। 33 यूसुफ के भाई उसके सामने की मेज पर बैठे थे। सभी भाई सबसे बड़े भाई से आरम्भ कर सबसे छोटे भाई तक क्रम में बैठे थे। सभी भाई एक दूसरे को, जो हो रहा था उस पर आश्चर्य करते हुए देखते जा रहे थे। 34 सेवक यूसुफ की मेज से उनको भोजन ले जाते थे। किन्तु औरों की तुलना में सेवकों ने बिन्यामीन को पाँच गुना अधिक दिया। यूसुफ के साथ वे सभी भाई तब तक खाते और दाखमधु पीते रहे जब तक वे नशे में चूर नहीं हो गया।
यूसुफ जाल बिछाता है
44तब यूसुफ ने अपने नौकर को आदेश दिया। यूसुफ ने कहा, “उन व्यक्तियों की बोरियों में इतना अन्न भरो जितना ये ले जा सकें और हर एक का धन उस की अन्न की बोरी में रख दो। 2 सबसे छोटे भाई की बोरी में धन रखो। किन्तु उसकी बोरी में मेरी विशेष चाँदी का प्याला भी रख दो।” सेवक ने यूसुफ का आदेश पूरा किया।
3 अगले दिन बहुत सुबह सब भाई अपने गधों के साथ अपने देश को वापस भेज दिए गए। 4 जब वे नगर को छोड़ चुके, यूसुफ ने अपने सेवक से कहा, “जाओ और उन लोगों का पीछा करो। उन्हें रोको और उनसे कहो, ‘हम लोग आप लोगों के प्रति अच्छे रहे। किन्तु आप लोगों ने हमारे यहाँ चोरी क्यों की? आप लोगों ने यूसुफ का चाँदी का प्याला क्यों चुराया? 5 हमारे मालिक यूसुफ इसी प्याले से पीते हैं। वे सपने की व्याख्या के लिए इसी प्याले का उपयोग करते हैं। इस प्याले को चुराकर आप लोगों ने अपराध किया है।’”
6 अतः सेवक ने आदेश का पालन किया। वह सवार हो कर भाईयों तक गया और उन्हें रोका। सेवक ने उनसे वे ही बातें कहीं जो यूसुफ ने उनसे कहने के लिए कही थीं।
7 किन्तु भाईयों ने सेवक से कहा, “प्रशासक ऐसी बातें क्यों कहते हैं? हम लोग ऐसा कुछ नहीं कर सकते। 8 हम लोग वह धन लौटाकर लाए जो पहले हम लोगों की बोरियों में मिले थे। इसलिए निश्चय ही हम तुम्हारे मालिक के घर से चाँदी या सोना नहीं चुराएंगे। 9 यदी आप किसी बोरी मे चाँदी का वह प्याला पा जायें तो उस व्यक्ति को मर जाने दिया जाये। तुम उसे मार सकते हो और हम लोग तुम्हारे दास होंगे।”
10 सेवक ने कहा, “जैसा तुम कहते हो हम वैसा ही करेंगे, किन्तु मैं उस व्यक्ति को मारूँगा नहीं। यदि मुझे चाँदी का प्याला मिलेगा तो वह व्यक्ति मेरा दास होगा। अन्य भाई स्वतन्त्र होंगे।”
जाल फेंका गया, बिन्यामीन पकड़ा गया
11 तब सभी भाईयों ने अपनी बोरियाँ जल्दी जल्दी ज़मीन पर खोलीं। 12 सेवक ने बोरियों जल्दी जल्दी जमीन पर खोली। सेवक ने बोरियों में देखा। उसने सबसे बड़े भाई से आरम्भ किया और सबसे छोटे भाई पर अन्त किया। उसने बिन्यामीन की बोरी में प्याला पाया। 13 भाई बहुत दुःखी हुए। उन्होंने दुःख के कारण अपने वस्त्र फाड़ डाले। उन्होंने अपनी बोरियाँ गधों पर लादीं और नगर को लौट पड़े।
14 यहूदा और उसके भाई यूसुफ के घर लौटकर गए। यूसुफ तब तक वहाँ था। भाईयों ने पृथ्वी तक झुककर प्रणाम किया। 15 यूसुफ ने उनसे कहा, “तुम लोगों ने यह क्यों किया? क्या तुम लोगों को पता नहीं है कि गुप्त बातों को जानने का मेरा विशेष ढंग है। मुझसे बढ़कर अच्छी तरह कोई दूसरा यह नहीं कर सकता।”
16 यहूदा ने कहा, “महोदय, हम लोगों को कहने के लिए कुछ नहीं है। स्पष्ट करने का कोई रास्ता नहीं है। यह दिखाने का कोई तरीका नहीं है कि हम लोग अपराधी नहीं है। हम लोगों ने और कुछ किया होगा जिसके लिए परमेश्वर ने हमें अपराधी ठहराया। इसलिए हम सभी बिन्यामीन भी, आपके दास होंगे।”
17 किन्तु यूसुफ ने कहा, “मैं तुम सभी को दास नहीं बनाउँगा। केवल वह व्यक्ति जिसने प्याला चुराया है, मेरा दास होगा। अन्य तुम लोग शान्ति से अपने पिता के पास जा सकते हो।”
यहूदा बिन्यामीन की सिफारिश करता है
18 तब यहूदा यूसुफ के पास गया और उसने कहा, “महोदय, कृपाकर मुझे स्वयं स्पष्ट कह लेने दें। कृपा कर मुझ से अप्रसन्न न हों। मैं जानता हूँ कि आप स्वयं फ़िरौन जैसे हैं। 19 जब हम लोग पहले यहाँ आए थे, आपने पूछा था कि ‘क्या तुम्हारे पिता या भाई हैं?’ 20 और हमने आपको उत्तर दिया, ‘हमारे एक पिता हैं, वे बूढ़े हैं और हम लोगों का एक छोटा भाई है। हमारे पिता उससे बहुत प्यार करते हैं। क्योंकि उसका जन्म उनके बूढ़ापे में हुआ था, यह अकेला पुत्र है। हम लोगों के पिता उसे बहुत प्यार करते हैं।’ 21 तब आपने हमसे कहा था, ‘उस भाई को मेरे पास लाओ। मैं उसे देखना चाहता हूँ।’ 22 और हम लोगों ने कहा था, ‘वह छोटा लड़का नहीं आ सकता। वह अपने पिता को नहीं छोड़ सकता। यदि उसके पिता को उससे हाथ धोना पड़ा तो उसका पिता इतना दुःखी होगा कि वह मर जाएगा।’ 23 किन्तु आपने हमसे कहा, ‘तुम लोग अपने छोटे भाई को अवश्य लाओ, नहीं तो मैं फिर तुम लोगों के हाथ अन्न नहीं बेचूँगा।’ 24 इसलिए हम लोग अपने पिता के पास लौटे और आपने जो कुछ कहा, उन्हें बताया।
25 “बाद में हम लोगों के पिता ने कहा, ‘फिर जाओ और हम लोगों के लिए कुछ और अन्न खरीदो।’ 26 और हम लोगों ने अपने पिता से कहा, ‘हम लोग अपने सबसे छोटे भाई के बिना नहीं जा सकते। शासक ने कहा है कि वह तब तक हम लोगों को फिर अन्न नहीं बेचेगा जब तक वह हमारे सबसे छोटे भाई को नहीं देख लेता।’ 27 तब मेरे पिता ने हम लोगों से कहा, ‘तुम लोग जानते हो कि मेरी पत्नी राहेल ने मुझे दो पुत्र दिये। 28 मैंने एक पुत्र को दूर जाने दिया और वह जंगली जानवर द्वारा मारा गया और तब से मैंने उसे नहीं देखा है। 29 यदि तुम लोग मेरे दूसरे पुत्र को मुझसे दूर ले जाते हो और उसे कुछ हो जाता है तो मुझे इतना दुःख होगा कि मैं मर जाऊँगा।’ 30 इसलिए यदि अब हम लोग अपने सबसे छोटे भाई के बिना घर जायेंगे तब हम लोगों के पिता को यह देखना पड़ेगा। यह छोटा लड़का हमारे पिता के जीवन में सबसे अधिक महत्व रखता है। 31 जब वे देखेंगे कि छोटा लड़का हम लोगों के साथ नहीं है वे मर जायेंगे और यह हम लोगों का दोष होगा। हम लोग अपने पिता के घोर दुःख एवं मृत्यु का कारण होंगे।
32 “मैंने छोटे लड़के का उत्तरदायित्व लिया है। मैंने अपने पिता से कहा, ‘यदि मैं उसे आपके पास लौटाकर न लाऊँ तो आप मेरे सारे जीवनभर मुझे दोषी ठहरा सकते है।’ 33 इसलिए अब मैं आपसे माँगता हूँ, और आप से प्रार्थना करता हूँ कि कृपया छोटे लड़के को अपने भाईयों के साथ लौट जाने दें और मैं यहाँ रूकूँगा और आपका दास होऊँगा। 34 मैं अपने पिता के पास लौट नहीं सकता यदि हमारे साथ छोटा भाई नहीं रहेगा। मैं इस बात से बहुत भयभीत हूँ कि मेरे पिता के साथ क्या घटेगा।”
समीक्षा
आशा बनाए रखें
याकूब, दाऊद की तरह पुकार सकता था: 'कब तक, हे प्रभु‘(भजन संहिता 13:1अ)। उसकी तकलीफें चलती ही जा रही थीं। वह बीस साल से अपने खोए हुए पुत्र के लिए दु:खी था। अब वहाँ पर भयंकर सूखा पड़ा था (उत्पत्ति 43:1) और अब उसे सबसे ज़्यादा प्यारे पुत्र बिन्यामीन के खोने का दु:ख सता रहा था। उसने कहा, 'तुमने मुझसे बुरा बर्ताव क्यों किया? ' (पद - 6)। सबसे ज़्यादा दु:खी होकर वह कहता है, ' यदि मैं निर्वंश हुआ तो होने दो ' (पद - 14)।
अंतत: याकूब को परमेश्वर पर भरोसा करना पड़ा और उसने अपने पुत्र बिन्यामीन को जाने दिया। जब उसने ऐसा किया तो सब ठीक हो गया अक्सर ऐसा ही होता है, जब तक कि हम स्थिति को प्रभु के हाथों में नहीं सौंपते – शायद बदतर होने के डर से – कि प्रभु सब कुछ ठीक कर देंगे।
उत्पत्ति के इस भाग की कहानी बताने वाला व्यक्ति बहुत ही बुद्धिमान है। वह वेदना को बाहर निकालता है। यहूदा जानता था कि यदि पिता बिन्यामीन के साथ - साथ यूसुफ को खो देंगे तो इससे शायद उनकी मृत्यु हो जाए। ' वह उस दु:ख के बारे में बताता है जो उसके पिता पर आ सकता था' (44:34)। इन सब में, हम - पाठक - जानते हैं कि यूसुफ ज़िंदा है और यह कि उसके द्वारा सारे सपने पूरे होने वाले हैं (43:26-28)। यूसुफ 'बहुत दु:खी हुआ' और उसे रोने के लिए एक स्थान देखना पड़ा (पद - 30)।
यूसुफ अपने भाइयों की परीक्षा लेता है। यहूदा बदल गया था। पहले उसने संवेदनाहीन ढंग से अपने भाई को दासत्व में बेच दिया था (37:26-27)। अब वह अपने भाई को बचाने के लिए अपनी जान देने के लिए तैयार है: ' सो अब तेरा दास इस लड़के की सन्ती अपने प्रभु का दास हो कर रहने की आज्ञा पाए, और यह लड़का अपने भाइयों के संग जाने दिया जाए ' (44:33)।
इस कहानी के अनपेक्षित घुमाव और मोड़ में अपने उद्देश्य को पूरा करते हुए परमेश्वर कार्य कर रहे हैं। वह हमेशा आपके चरित्र में कार्य कर रहे हैं और आपको इस योग्य बना रहे हैं ताकि जब आप पीछे मुड़कर देखें तो कहें कि, 'प्रभु ने मेरी भलाई की है ' (भजन संहिता 13:6)।
जब हम इसे नये नियम की दृष्टि से पढ़ते हैं तो हमें याद आता है कि परमेश्वर ने हमें बचाने के लिए अपने एकलौते पुत्र यीशु को भेजा। याकूब को अपने पूरे परिवार को बचाने के लिए अपने 'केवल' पुत्र ('वह अब अकेला रह गया', उत्पत्ति 42:38) बिन्यामीन को भेजना पड़ा।
प्रार्थना
प्रभु, इस अद्भुत उपाय के लिए आपका धन्यवाद जिसमें आप हमारे जीवन में और इतिहास में अपने उद्देश्यों को पूरा कर रहे हैं। जब मैं पुकारूँ 'हे प्रभु, कब तक?', तो मेरी मदद कीजिये ताकि मैं यीशु का अनुसरण करता रहूँ, प्रार्थना करता रहूँ, विश्वास करता रहूँ, आनंद मनाता रहूँ, आराधना करता रहूँ और आप में अपनी आशा बनाए रखूँ।
पिप्पा भी कहते है
उत्पत्ति 43:1-44:34
यह पद्यांश बहुत ही मर्मस्पर्शी है और हमें अनिश्चित अंत वाले नाटक में छोड़ देता है। उन सब के द्वारा काफी नफरत, ईर्ष्या, कपट और अदयालुता की गई। यूसुफ यह जानने के लिए उनकी परीक्षा करता है कि उनके दिलों में क्या है: क्या वे बदल गए हैं? क्या वे अपने कार्यों पर पछता रहे हैं? जब यूसुफ ने देखा कि उसके भाई झुक कर प्रणाम कर रहे हैं, तो उसे यह कहने की इच्छा हुई होगी, ‘याद है वे सपनें ….? मैंने तुम से कहा था ना ….?’ हमारे प्रोत्साहन के लिए इसमें कुछ तो शामिल है, लेकिन इन्हें दूसरों से न कहें तो अच्छा है।
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संदर्भ
नोट्स:
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