जो आपको जानने की आवश्यकता है
परिचय
तीन साल तक हम ऑक्सफर्ड में रहे।मैं इंग्लैंड के एक चर्च में पास्टर बनने का प्रशिक्षण ले रहा था और ऑक्सफर्ड यूनीवर्सिटी में सिद्धांतवादी विश्वास में डिग्री के लिए अध्ययन कर रहा था। जब हम वहाँ पर थे, तब एक चीज जिस पर मैंने ध्यान दिया, लंदन की तुलना में, ऑक्सफर्ड तुलनात्मक रूप से भौतिक चीजों के प्रति मोह नहीं रखता था। लोग संपत्ति के द्वारा मोहित नहीं होते थे। सफलता का अलग ही मापदंड था।
ऑक्सफर्ड में लोग पैसे या सुंदरता से अधिक मस्तिष्क के द्वारा प्रभावित होते थे। सफलता मापी जाती थी प्रथम आने से, श्रेष्ठ ठहरने, पी.एच.डी, प्रोफेसर बनने और प्रकाशन कार्यों से। इससे मैं आश्चर्य करने लगा कि क्या समझ और “ज्ञान” उतने ही झूठे ईश्वर हो सकते हैं जितना कि पैसा और संपत्ति।
ज्ञान अच्छा है। जैसा कि बिल हिबल कहते हैं,”तथ्य हमारे मित्र हैं।” शिक्षा अच्छी है – पढ़ना, सीखना और खोज करना, ये सब अच्छी गतिविधियाँ हैं। किंतु, जैसा कि लॉर्ड बिरोन ने लिखा,”ज्ञान का वृक्ष वह जीवन नहीं है।” हमें दृष्टिकोण में “ज्ञान” को देखने की आवश्यकता है। हमारा ज्ञान बहुत सीमित है। जितना अधिक हम जानते हैं, उतना ही हमें एहसास होता है कि हम कितना कम जानते हैं। परमेश्वर हमारे निर्माता हैं और केवल वह सबकुछ जानते हैं।
विभिन्न प्रकार के ज्ञान भी होते हैं, और वे सभी समान रूप से मूल्यवान नहीं हैं। प्रेंच भाषा में “जानने के लिए” दो अलग शब्द हैं। एक (सेवोर) का अर्थ है एक तथ्य को जानना, दूसरे (कोननेटर) का अर्थ है एक व्यक्ति को जानना। परमेश्वर हममें इस बात में अधिक रूचि रखते हैं कि हम तथ्यों से अधिक लोगों को जाने। सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान है परमेश्वर को जानना और उनके द्वारा पहचाने जाना। यद्यपि यह अंत नहीं है। केवल ज्ञान होना पर्याप्त नहीं है – आपके पास प्रेम भी होना चाहिए।
भजन संहिता 95:1-11
95आओ हम यहोवा के गुण गाएं!
आओ हम उस चट्टान का जय जयकार करें जो हमारी रक्षा करता है।
2 आओ हम यहोवा के लिये धन्यवाद के गीत गाएं।
आओ हम उसके प्रशंसा के गीत आनन्दपूर्वक गायें।
3 क्यों? क्योंकि यहोवा महान परमेश्वर है।
वह महान राजा सभी अन्य “देवताओं”पर शासन करता है।
4 गहरी गुफाएँ और ऊँचे पर्वत यहोवा के हैं।
5 सागर उसका है, उसने उसे बनाया है।
परमेश्वर ने स्वयं अपने हाथों से धरती को बनाया है।
6 आओ, हम उसको प्रणाम करें और उसकी उपासना करें।
आओ हम परमेश्वर के गुण गाये जिसने हमें बनाया है।
7 वह हमारा परमेश्वर
और हम उसके भक्त हैं।
यदि हम उसकी सुने
तो हम आज उसकी भेड़ हैं।
8 परमेश्वर कहता है, “तुम जैसे मरिबा और मरूस्थल के मस्सा में कठोर थे
वैसे कठोर मत बनो।
9 तेरे पूर्वजों ने मुझको परखा था।
उन्होंने मुझे परखा, पर तब उन्होंने देखा कि मैं क्या कर सकता हूँ।
10 मैं उन लोगों के साथ चालीस वर्ष तक धीरज बनाये रखा।
मैं यह भी जानता था कि वे सच्चे नहीं हैं।
उन लोगों ने मेरी सीख पर चलने से नकारा।
11 सो मैं क्रोधित हुआ और मैंने प्रतिज्ञा की
वे मेरे विशाल कि धरती पर कभी प्रवेश नहीं कर पायेंगे।”
समीक्षा
सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान है, परमेश्वर का ज्ञान
भजनसंहिता के लेखक आराधना, स्तुति और धन्यवादिता के साथ शुरुवात करते हैं (वव.1-2)। हम आराधना करते हैं, इसलिए नहीं कि हम आवश्यक रूप से ऐसा महसूस करते हैं, ना कि इसलिए कि चीजें अच्छी तरह से हो रही हैं। असल में, कभी कभी हम कठिन परिस्थितियों और मुश्किल समय के बावजूद आराधना करते हैं।
और ना ही हम इसलिए आराधना करते हैं कि यह आवश्यक रूप से हमें अच्छा महसूस करवाती हैं। अक्सर हम आत्मिक ताजगी के लिए अराधना की आवश्यकता को महसूस करते हैं।
इसके बजाय हम इस भजन में देखते हैं कि हम परमेश्वर की आराधना करते हैं, इसलिए कि वह कौन हैं:
“क्योंकि यहोवा महान ईश्वर हैं, और सब देवताओं के ऊपर महान राजा हैं...आओ हम झुककर दंडवत करें और अपने कर्ता यहोवा के सामने घुटने टेकें;क्योंकि वही हमारे परमेश्वर हैं, और हम उनकी चराई की प्रजा” (वव.3-7)।
“क्योंकि यहोवा महान ईश्वर हैं,
और सब देवताओं के ऊपर महान राजा है...
आओ हम झुककर दंडवत करे,
और अपने कर्ता यहोवा के सामने घुटने टेके।
क्योंकि वही हमारा परमेश्वर है,
और हम उसकी चराई की प्रजा,
और उसके हाथ की भेड़े हैं” (वव.3-7)।
भजनसंहिता के लेखक लोगों को याद दिलाते हैं कि वे परमेश्वर के बारे में क्या जानते हैं। यह सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान है –परमेश्वर का ज्ञान।
आराधना के संदर्भ में, परमेश्वर अक्सर हमसे बातें करते हैं। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर ने केवल भूतकाल में बातें की हैं। परमेश्वर आज भी बातें करते हैं। भजनसंहिता के लेखक कहते हैं,”भला होता, कि आज तुम उनकी बातें सुनते...” (व.7ब)।
इस भजन में हम दूसरे प्रकार के महत्वपूर्ण ज्ञान को भी देखते हैं। परमेश्वर कहते हैं कि लोग भटक जाते हैं क्योंकि वे “मेरा मार्ग नहीं जानते हैं” (व.10)। परमेश्वर के मार्गों को जानना और इस पर चलना, वह जीवन जीने की पूँजी है जो कि परमेश्वर चाहते हैं।
प्रार्थना
परमेश्वर, आज मैं आपके सामने घुटने टेकता हूँ और आपकी आराधना करता हूँ। आपका धन्यवाद कि आप मुझे जानते हैं और मैं आपको जान सकता हूँ। जैसे ही मैं आज आपकी सुनता हूँ, मेरी सहायता कीजिए कि मैं अपने हृदय को कठोर न करुँ और भटक न जाऊँ। होने दीजिए कि मैं आपके मार्गों को जानूं और उनके पीछे चलूं और आपके विश्राम में प्रवेश करुँ।
1 कुरिन्थियों 7:36-8:13
36 यदि कोई सोचता है कि वह अपनी युवा हो चुकी कुँवारी प्रिया के प्रति उचित नहीं कर रहा है और यदि उसकी कामभावना तीव्र है, तथा दोनों को ही आगे बढ़ कर विवाह कर लेने की आवश्यकता है, तो जैसा वह चाहता है, उसे आगे बढ़ कर वैसा कर लेना चाहिये। वह पाप नहीं कर रहा है। उन्हें विवाह कर लेना चाहिये। 37 किन्तु जो अपने मन में बहुत पक्का है और जिस पर कोई दबाव भी नहीं है, बल्कि जिसका अपनी इच्छाओं पर भी पूरा बस है और जिसने अपने मन में पूरा निश्चय कर लिया है कि वह अपनी प्रिया से विवाह नहीं करेगा तो वह अच्छा ही कर रहा है। 38 सो वह जो अपनी प्रिया से विवाह कर लेता है, अच्छा करता है और जो उससे विवाह नहीं करता, वह और भी अच्छा करता है।
39 जब तक किसी स्त्री का पति जीवित रहता है, तभी तक वह विवाह के बन्धन में बँधी होती है किन्तु यदि उसके पति देहान्त हो जाता है, तो जिसके साथ चाहे, विवाह करने, वह स्वतन्त्र है किन्तु केवल प्रभु में। 40 पर यदि जैसी वह है, वैसी ही रहती है तो अधिक प्रसन्न रहेगी। यह मेरा विचार है। और मैं सोचता हूँ कि मुझमें भी परमेश्वर के आत्मा का ही निवास है।
चढ़ावे का भोजन
8अब मूर्तियों पर चढ़ाई गई बलि के विषय में हम यह जानते हैं, “हम सभी ज्ञानी हैं।” ज्ञान लोगों को अहंकार से भर देता है। किन्तु प्रेम से व्यक्ति अधिक शक्तिशाली बनता है। 2 यदि कोई सोचे कि वह कुछ जानता है तो जिसे जानना चाहिये उसके बारे में तो उसने अभी कुछ जाना ही नहीं। 3 यदि कोई परमेश्वर को प्रेम करता है तो वह परमेश्वर के द्वारा जाना जाता है।
4 सो मूर्तियों पर चढ़ाये गये भोजन के बारे में हम जानते हैं कि इस संसार में वास्तविक प्रतिमा कहीं नहीं है। और यह कि परमेश्वर केवल एक ही है। 5 और धरती या आकाश में यद्यपि तथाकथित बहुत से “देवता” हैं, बहुत से “प्रभु” हैं। 6 किन्तु हमारे लिये तो एक ही परमेश्वर है, हमारा पिता। उसी से सब कुछ आता है। और उसी के लिये हम जीते हैं। प्रभु केवल एक है, यीशु मसीह। उसी के द्वारा सब वस्तुओं का अस्तित्व है और उसी के द्वारा हमारा जीवन है।
7 किन्तु यह ज्ञान हर किसी के पास नहीं है। कुछ लोग जो अब तक मूर्ति उपासना के आदी हैं, ऐसी वस्तुएँ खाते हैं और सोचते है जैसे मानो वे वस्तुएँ मूर्ति का प्रसाद हों। उनके इस कर्म से उनकी आत्मा निर्बल होने के कारण दूषित हो जाती है। 8 किन्तु वह प्रसाद तो हमें परमेश्वर के निकट नहीं ले जायेगा। यदि हम उसे न खायें तो कुछ घट नहीं जाता और यदि खायें तो कुछ बढ़ नहीं जाता।
9 सावधान रहो! कहीं तुम्हारा यह अधिकार उनके लिये, जो दुर्बल हैं, पाप में गिरने का कारण न बन जाये। 10 क्योंकि दुर्बल मन का कोई व्यक्ति यदि तुझ जैसे इस विषय के जानकार को मूर्ति वाले मन्दिर में खाते हुए देखता है तो उसका दुर्बल मन क्या उस हद तक नहीं भटक जायेगा कि वह मूर्ति पर बलि चढ़ाई गयी वस्तुओं को खाने लगे। 11 तेरे ज्ञान से, दुर्बल मन के व्यक्ति का तो नाश ही हो जायेगा तेरे उसी बन्धु का, जिसके लिए मसीह ने जान दे दी। 12 इस प्रकार अपने भाइयों के विरुद्ध पाप करते हुए और उनके दुर्बल मन को चोट पहुँचाते हुए तुम लोग मसीह के विरुद्ध पाप कर रहे हो। 13 इसलिए यदि भोजन मेरे भाई को पाप की राह पर बढ़ाता है तो मैं फिर कभी भी माँस नहीं खाऊँगा ताकि मैं अपने भाई के लिए, पाप करने की प्रेरणा न बनूँ!
समीक्षा
सबसे ज्यादा ज्ञान से नहीं लेकिन प्रेम से अंतर पड़ता है
यद्यपि ज्ञान एक अच्छी चीज है। इसमें खतरा छिपा है। यह घमंड ला सकता है कि मैं “सब जानता हूँ” की भावना को ला सकता है। “ ज्ञान घमण्ड उत्पन्न करता है, परन्तु प्रेम से उन्नति होती है” (8:1ब)।
ज्ञान अपने आपमें बुरी चीज नहीं है। यह जाँघिये की तरह है -यह उपयोगी है, लेकिन इसे दिखाना आवश्यक नहीं है! जो हम जानते हैं इससे दूसरों को मोहित करने की कोशिश करने के बजाय, हमें उन्हें प्रेम में उत्साहित करने और बढ़ाने की आवश्यकता है।
ज्ञान अक्सर घमंड और अक्खड़पन को ला सकता हैः”यदि कोई समझे कि मैं कुछ जानता हूँ, तो जैसा उसे जानना चाहिए वैसा वह अब तक नहीं जानता” (व.2)। जीवन में यह महत्वपूर्ण है कि परमेश्वर से प्रेम करें और प्रेम का एक जीवन जीएँ:” परन्तु यदि कोई परमेश्वर से प्रेम रखते हैं, तो परमेश्वर उसे पहचानते हैं” (व.3)।
जैसा कि यूजन पीटरसन इसका अनुवाद करते हैं,”कभी कभी हम सोचते हैं कि हम सब जानते हैं जो हमें इन प्रश्नों के उत्तर में हमें जानने की आवश्यकता है –लेकिन कभी कभी हमारे दिन हृदय हमारे घमंडी दिमाग से अधिक हमारी सहायता कर सकते हैं। असल में हम कभी भी पूरी तरह से नहीं जान पाते हैं, जब तक एहसास न हो जाएँ कि केवल परमेश्वर यह सब जानते हैं” (वव.1ब-3, एम.एस.जी)।
पौलुस “मूर्तियों के सामने चढ़ाये गए भोजन” का उदाहरण देते हैं (वव.1,4)। एक व्यक्ति जिसके पास ज्ञान है वह जानता है कि मूर्तियों के सामने चढ़ाए गए भोजन को खा सकते हैं क्योंकि मूर्ति कुछ नहीं हैं:”तब भी हमारे लिये तो एक ही परमेश्वर हैं : अर्थात पिता जिसकी ओर से सब वस्तुएँ हैं, और हम उन्हीं के लिये हैं। और एक ही प्रभु हैं, अर्थात् यीशु मसीह जिसके द्वारा सब वस्तुएँ हुईं, और हम भी उन्हीं के द्वारा हैं” (व.6)।
“लेकिन हर कोई यह नहीं जानता है” (व.7अ)। कुछ लोगों का विवेक कमजोर है। किसी ऐसे व्यक्ति के सामने मूर्ति के सामने चढ़ाया हुआ भोजन खाना, जो मानता है कि यह गलत है, तो शायद से हम उन्हें भटका दें। हमारा ऊँचा ज्ञान सबसे महत्वपूर्ण नहीं, बल्कि दूसरों के लिए हमारा प्रेम”पर सब को यह ज्ञान नहीं, परन्तु कुछ तो अब तक मूर्ति को कुछ समझने के कारण मूर्तियों के सामने बलि की हुई वस्तु को कुछ समझकर खाते हैं, और उनका विवेक निर्बल होने के कारण अशुध्द हो जाता है” (व.7ब, एम.एस.जी)।
प्रेम पहचानता है कि “मसीह ने अपना जीवन दिया उस व्यक्ति के लिए...जब आप अपने मित्र को चोट पहुंचाते हैं, आप मसीह को चोट पहुंचाते हैं” (वव.11-12, एम.एस.जी)। पौलुस लिखते हैं,” इस कारण यदि भोजन मेरे भाई को ठोकर खिलाए, तो मैं कभी किसी रीति से मांस न खाउँगा, न हो कि मैं अपने भाई के लिये ठोकर का कारण बनूँ” (व.13)।
प्रेम, ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण है। जब परमेश्वर एक व्यक्ति को मापते हैं जब वह हृदय पर टेप लगाते हैं नाकि दिमाग पर। परमेश्वर के विषय में केवल बहुत कुछ जानना पर्याप्त नहीं है; उनको जानिये और उनके लिए और दूसरों के लिए आपको प्रेम से भरने दीजिए। दूसरे शब्दों में, बात यह नहीं कि आप क्या जानते हैं, बल्कि आप किसे जानते हैं।
प्रार्थना
परमेश्वर आपका धन्यवाद कि, यद्यपि ज्ञान का खतरा यह है कि यह फुला देता है, परंतु प्रेम हमेशा बढ़ाता है। मेरी सहायता कीजिए कि आपके लिए प्रेम और दूसरों के लिए प्रेम के कारण हर चीज को करुँ।
सभोपदेशक 7:1-9:12
सूक्ति संग्रह
7सुयश, अच्छी सुगन्ध से उत्तम है।
वह दिन जन्म के दिन से सदा उत्तम है जब व्यक्ति मरता है। उत्तम है वह दिन व्यक्ति जब मरता है।
2 उत्सव में जाने से जाना गर्मी में, सदा उत्तम हुआ करता है।
क्योंकि सभी लोगों की मृत्यु तो निश्चित है।
हर जीवित व्यक्ति को सोचना चाहिये इसे।
3 हंसी के ठहाके से शोक उत्तम है।
क्योंकि जब हमारे मुख पर उदासी का वास होता है, तो हमारे हृदय शुद्ध होते है।
4 विवेकी मनुष्य तो सोचता है मृत्यु की
किन्तु मूर्ख जन तो बस सोचते रहते हैं कि गुजरे समय अच्छा।
5 विवेकी से निन्दित होना उत्तम होता है,
अपेक्षाकृत इसके कि मूर्ख से प्रशंसित हो।
6 मूर्ख का ठहाका तो बेकार होता है।
यह वैसे ही होता है जैसे कोई काँटों को नीचे जलाकर पात्र तपाये।
7 लोगों को सताकर लिया हुआ धन
विवेकी को भी मूर्ख बना देता है,
और घूस में मिला धन उसकी मति को हर लेता है।
8 बात को शुरू करने से अच्छा
उसका अन्त करना है।
उत्तम है नम्रता और धैर्य
धीरज के खोने और अंहकार से।
9 क्रोध में जल्दी से मत आओ
क्योंकि क्रोध में आना मूर्खता है।
10 मत कहो, “बीते दिनों में जीवन अच्छा क्यों था?”
विवेकी हमें यह प्रश्न पूछने को प्रेरित नहीं करता है।
विवेकी हमें प्रेरित नहीं करता है पूछने यह प्रश्न।
11 जैसे उत्तराधिकार में सम्पत्ति का प्राप्त करना अच्छा है
वैसे ही बुद्धि को पाना भी उत्तम है। जीवन के लिये यह लाभदायक है।
12 धन के समान बुद्धि भी रक्षा करती है।
बुद्धि के ज्ञान का लाभ यह है कि यह विवेकी जन को जीवित रखता है।
13 परमेश्वर की रचना को देखो।
देखो तुम एक बात भी बदल नहीं सकते।
चाहे तुम यही क्यों न सोचो कि वह गलत है।
14 जब जीवन उत्तम है तो उसका रस लो किन्तु जब जीवन कठिन है तो याद रखो कि परमेश्वर हमें कठिन समय देता है
और अच्छा समय भी देता है और कल क्या होगा यह तो कोई भी नहीं जानता।
लोग सचमुच अच्छे नहीं हो सकते
15 अपने छोटे से जीवन में मैंने सब कुछ देखा है। मैंने देखा है अच्छे लोग जवानी में ही मर जाते हैं। मैंने देखा है कि बुरे लोग लम्बी आयु तक जीते रहते हैं। 16-17 सो अपने को हलकान क्यों करते हो? न तो बहुत अधिक धर्मी बनो और न ही बुद्धिमान अन्यथा तुम्हें एसी बातें देखने को मिलेगी जो तुम्हें आघात पहुँचाएगी न तो बहुत अधिक दुष्ट बनो और न ही मूर्ख अन्यथा समय से पहले ही तुम मर जाओगे।
18 थोड़ा यह बनों और थोड़ा वह। यहाँ तक कि परमेश्वर के अनुयायी भी कुछ अच्छा करेंगे तो बुरा भी। 19-20 निश्चय ही इस धरती पर कोई ऐसा अच्छा व्यक्ति नहीं है जो सदा अच्छा ही अच्छा करता है और बुरा कभी नहीं करता। बुद्धि व्यक्ति को शक्ति देती है। किसी नगर के दस मूर्ख मुखियाओं से एक साधारण बुद्धिमान पुरुष अधिक शक्तिशाली होता है।
21 लोग जो बातें कहते हैं उन सब पर कान मत दो। हो सकता है तुम अपने सेवक को ही तुम्हारे विषय में बुरी बातें कहते सुनो। 22 और तुम जानते हो कि तुमने भी अनेक अवसरों पर दूसरों के बारे में बुरी बातें कही हैं।
23 इन सब बातों के बारे में मैंने अपनी बुद्धि और विचारों का प्रयोग किया है। मैंने सच्चे अर्थ में बुद्धिमान बनना चाहा है। किन्तु यह तो असम्भव था। 24 मैं समझ नहीं पाता कि बातें वैसी क्यों है जैसी वे हैं। किसी के लिये भी यह समझना बहुत मुश्किल है। 25 मैंने अध्ययन किया और सच्ची बुद्धि को पाने के लिये बहुत कठिन प्रयत्न किया। मैंने हर वस्तु का कोई हेतु ढूँढने का प्रयास किया किन्तु मैंने जाना क्या?
मैंने जाना कि बुरा होना बेवकूफी है और मूर्ख व्यक्ति का सा आचरण करना पागलपन है। 26 मैंने यह भी पाया कि कुछ स्त्रियाँ एक फन्दे के समान खतरनाक होती हैं। उनके हृदय जाल के जैसे होते हैं और उनकी बाहें जंजीरों की तरह होती हैं। इन स्त्रियों की पकड़ में आना मौत की पकड़ में आने से भी बुरा है। वे लोग जो परमेश्वर को प्रसन्न करते हैं, ऐसी स्त्रियों से बच निकलते हैं किन्तु वे लोग जो परमेश्वर को अप्रसन्न करते हैं उनके द्वरा फाँस लिये जाते हैं।
27-28 गुरू का कहना है, “इन सभी बातों को एक साथ इकट्ठी करके मैंने सामने रखा, यह देखने के लिये कि मैं क्या उत्तर पा सकता हुँ? उत्तरों की खोज में तो मैं आज तक हूँ। किन्तु मैंने इतना तो पा ही लिया है कि हजारों में कोई एक अच्छा पुरूष तो मुझे मिला भी किन्तु अच्छी स्त्री तो कोई एक भी नहीं मिली।
29 “एक बात और जो मुझे पता चली है। परमेश्वर ने तो लोगों को नेक ही बनाया था किन्तु लोगों ने बुराई के अनेकों रास्ते ढूँढ लिये।”
बुद्धि और शक्ति
8वस्तुओं को जिस प्रकार एक बुद्धिमान व्यक्ति समझ सकता है और उनकी व्याख्या कर सकता है, वैसे कोई भी नहीं कर सकता। उसकी बुद्धि उसे प्रसन्न रखती है। बुद्धि एक दुःखी मुख को प्रसन्न मुख में बदल देती है।
2 मैं तुमसे कहता हूँ कि तुम्हें सदा ही राजा की आज्ञा माननी चाहिये। ऐसा इसलिये करो क्योंकि तुमने परमेश्वर को वचन दिया था। 3 राजा के आगे जल्दी मत करो। उसके सामने से हट जाओ। यदि हालात प्रतिकूल हो तो उसके इर्द—गिर्द मत रहो क्योंकि वह तो वही करेगा जो उसे अच्छा लगेगा। 4 आज्ञाएँ देने का राजा को अधिकार है, कोई नहीं पूछ सकता कि वह क्या कर रहा है। 5 यदि राजा आज्ञा का पालन करता है तो वह सुरक्षित रहेगा। किन्तु एक बुद्धिमान व्यक्ति ऐसा करने का उचित समय जानता है और वह यह भी जानता है कि समुचित बात कब करनी चाहिये।
6 उचित कार्य करने का किसी व्यक्ति के लिये एक ठीक समय होता है और एक ठीक प्रकार। प्रत्येक व्यक्ति को एक अवसर लेना चाहिये उसे निश्चित करना चाहिये कि उसे क्या करना है? और फिर अनेक विपत्तियों के होने पर भी उसे वह करना चाहिये। 7 आगे चलकर क्या होगा, यह निश्चित नहीं होने पर भी उसे वह करना चाहिये। क्योंकि भविष्य में क्या होगा यह तो उसे कोई बता ही नहीं सकता।
8 आत्मा को इस देह को छोड़कर जाने से कोई नहीं रोके रख सकता है। अपनी मृत्यु को रोक दें, ऐसी शक्ति तो किसी भी व्यक्ति में नहीं है। जब युद्ध चल रहा हो तो किसी भी सैनिक को यह स्वतंत्रता नहीं है कि वह जहाँ चाहे वहाँ चला जाये। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति पाप करता है तो वह पाप उस व्यक्ति को स्वतंत्रत नहीं रहने देता।
9 मैंने ये सब बातें देखी हैं। इस जगत में कुछ घटता है उन बातों के बारे में मैंने बड़ी तीव्रता से सोचा है और मैंने देखा है कि लोग दूसरे व्यक्तियों पर शासन करने की शक्ति पाने के लिये सदा संघर्ष करते रहते हैं और लोगों को कष्ट पहुँचाते रहते हैं।
10 मैंने उन बुरे व्यक्तियों के बहुत सजे धजे और विशाल शव—यात्रायें देखी हैं जो पवित्र स्थानों में आया जाया करते थे। शव— यात्राओं की क्रियाओं के बाद लोग जब घर लौटते हैं तो वे जो बुरा व्यक्ति मर चुका है उसके बारे में अच्छी अच्छी बातें कहा करते हैं और ऐसा उसी नगर में हुआ करता है जहाँ उसे बुरे व्यक्ति ने बहुत—बहुत बुरे काम किये हैं। यह अर्थहीन है।
न्याय प्रतिदान और दण्ड
11 कभी कभी लोगों ने जो बुरे काम किये हैं, उनके लिये उन्हें तुरंत दण्ड नहीं मिलता। उन पर दण्ड धीरे धीरे पड़ता है और इसके कारण दूसरे लोग भी बुरे कर्म करना चाहने लगते हैं।
12 कोई पापी चाहे सैकड़ों पाप करे और चाहे उसकी आयु कितनी ही लम्बी हो किन्तु मैं यह जानता हूँ कि तो भी परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना और उसका सम्मान करना उत्तम है। 13 बुरे लोग परमेश्वर का सम्मान नहीं करते। सो ऐसे लोग वास्तव में अच्छी वस्तुओं को प्राप्त नहीं करते। वे बुरे लोग अधिक समय तक जीवित नहीं रहेंगे। उनके जीवन डूबते सूरज में लम्बी से लम्बी होती जाती छायाओं के सामान बड़े नहीं होंगे।
14 इस धरती पर एक बात और होती है जो मुझे न्याय संगत नहीं लगती। बुरे लोगों के साथ बुरे बातें घटनी चाहियें और अच्छे लोगों के साथ अच्छी बातें। किन्तु कभी—कभी अच्छे लोगों के साथ बुरी बातें घटती है और बुरे लोगों के साथ अच्छी बातें। यह तो न्याय नहीं है। 15 सो मैंने निश्चय किया कि जीवन का आनन्द लेना अधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि इस जीवन में एक व्यक्ति जो सबसे अच्छी बात कर सकता है वह है खाना, पीना और जीवन का रस लेना। इससे कम से कम व्यक्ति को इस धरती पर उसके जीवन के दौरान परमेश्वर ने करने के लिये जो कठिन काम दिया है उसका आनन्द लेने मे सहायता मिलेगी।
16 इस जीवन में लोग जो कुछ करते हैं उसका मैंने बड़े ध्यान के साथ अध्ययन किया है। मैंने देखा है कि लोग कितने व्यस्त है। वे प्राय: बिना सोए रात दिन काम में लगे रहते हैं। 17 परमेश्वर जो करता है उन बहुत सी बातों को भी मैंने देखा है कि इस धरती पर परमेश्वर जो कुछ करता है, लोग उसे समझ नहीं सकते। उसे समझने के लिये मनुष्य बार बार प्रयत्न करता है। किन्तु फिर भी समझ नहीं पाता। यदि कोई बुद्धिमान व्यक्ति भी यह कहे कि वह परमेश्वर के कामों को समझता है तो यह भी सत्य नहीं है। उन सब बातों को तो कोई भी व्यक्ति समझ ही नहीं सकता।
क्या मृत्यु उचित है?
9मैंने इन सभी बातों के बारे में बड़े ध्यान से सोचा है और देखा है कि अच्छे और बुद्धिमान लोगों के साथ जो घटित होता है और वे जो काम करते हैं उनका नियन्त्रण परमेश्वर करता है। लोग नहीं जानते कि उन्हें प्रेम मिलेगा या घृणा और लोग नहीं जानते हैं कि कल क्या होने वाला है।
2 किन्तु, एक बात ऐसी है जो हम सब के साथ घटती है—हम सभी मरते हैं! मृत्यु अच्छे लोगों को भी आती है और बुरे लोगों को भी। पवित्र लोगों को भी मृत्यु आती है और जो पवित्र नहीं हैं, वे भी मरते हैं। लोग जो बलियाँ चढ़ाते हैं, वे भी मरते हैं, और वे भी जो बलियाँ नहीं चढ़ाते हैं, धर्मी जन भी वैसे ही मरता है, जैसे एक पापी। वह व्यक्ति जो परमेश्वर को विशेष वचन देता है, वह भी वैसे ही मरता है जैसे वह व्यक्ति जो उन वचनों को देने से घबराता है।
3 इस जीवन में जो भी कुछ घटित होता है उसमें सबसे बुरी बात यह है कि सभी लोगों का अन्त एक ही तरह से होता है। साथ ही यह भी बहुत बुरी बात है कि लोग जीवन भर सदा ही बुरे और मूर्खतापूर्ण विचारों में पड़े रहते हैं और अन्त में मर जाते हैं। 4 हर उस व्यक्ति के लिये जो अभी जीवित है, एक आशा बची है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि वह कौन है? यह कहावत सच्ची है:
“किसी मरे हुए सिंह से एक जीवित कुत्ता अच्छा है।”
5 जीवित लोग जानते हैं कि उन्हें मरना है। किन्तु मरे हुए तो कुछ भी नहीं जानते। मरे हुओं को कोई और प्रतिदान नहीं मिलता। लोग उन्हें जल्दी ही भूल जाते हैं। 6 किसी व्यक्ति के मर जाने के बाद उसका प्रेम, घृणा और ईर्ष्या सब समाप्त हो जाते हैं। मरा हुआ व्यक्ति संसार में जो कुछ हो रहा है, उसमें कभी हिस्सा नहीं बँटाता।
जीवन का आनन्द लो जबकि तुम ले सकते हो
7 सो अब तुम जाओ और अपना खाना खाओ और उसका आनन्द लो। अपना दाखमधु पिओ और खुश रहो। यदि तुम ये बातें करते हो तो ये बातें परमेश्वर से समर्थित है। 8 उत्तम वस्त्र पहनो और सुन्दर दिखो। 9 जिस पत्नी को तुम प्रम करते हो उसके साथ जीवन का भोग करो। अपने छोटे से जीवन के प्रत्येक दिन का आनन्द लो। 10 हर समय करने के लिये तुम्हारे पास काम है। इसे तुम जितनी उत्तमता से कर सकते हो करो। कब्र में तो कोई काम होगा ही नहीं। वहाँ न तो चिन्तन होगा, न ज्ञान और न विवेक और मृत्यु के उस स्थान को हम सभी तो जा रहे हैं।
सौभाग्य? दुर्भाग्य? हम कर क्या सकते हैं?
11 मैंने इस जीवन में कुछ और बातें भी देखी हैं जो न्याय संगत नहीं हैं। सबसे अधिक तेज दौड़ने वाला सदा ही दौड़ में नहीं जीतता, शक्तिशाली सेना ही युद्ध में सदा नहीं जीतती। सबसे अधिक बुद्धिमान व्यक्ति ही सदा अर्जित किये को नहीं खाता। सबसे अधिक चुस्त व्यक्ति ही सदा धन दौलत हासिल नहीं करता है और एक पढ़ा लिखा व्यक्ति ही सदा वैसी प्रशंसा प्राप्त नहीं करता जैसी प्रशंसा के वह योग्य है। जब समय आता है तो हर किसी के साथ बुरी बातें घट जाती हैं!
12 कोई भी व्यक्ति यह नहीं जानता है कि इसके बाद उसके साथ क्या होने वाला है। वह जाल में फँसी उस मछली के समान होता है जो यह नहीं जानती कि आगे क्या होगा। वह उस जाल मैं फँसी चिड़िया के समान होता है जो यह नहीं जानती कि क्या होने वाला है? इसी प्रकार एक व्यक्ति उन बुरी बातों में फाँस लिया जाता है जो उसके साथ घटती हैं।
समीक्षा
ज्ञान को पाने का प्रयास करिए लेकिन इसकी सीमाओं को जानिये
सभोपदेशक की पुस्तक में बुद्धि और ज्ञान साथ-साथ जाते हैं। बुद्धि और ज्ञान मूलभूत रूप से अच्छी वस्तुएँ हैं:
“बुद्धि मीरास के साथ अच्छी होती है, वरन जीवित रहने वालों के लिये लाभकारी है” (7:11)।
“बुद्धि से नगर के दस हाकिमों की अपेक्षा बुद्धिमान को अधिक सामर्थ प्राप्त होती है” (व.19, एम.एस.जी)।
“बुद्धिमान के तुल्य कौन है? और किसी बात का अर्थ कौन लगा सकता है? मनुष्य की बुद्धि के कारण उसका मुख चमकता, और उसके मुख की कठोरता दूर हो जाती है” (8:1, एम.एस.जी)।
बुद्धि का एक उदाहरण है कि बुद्धिमान लोग अपने गुस्से को नियंत्रित रखते हैं:”अपने मन में उतावली से क्रोधित न हो, क्योंकि क्रोध मूर्खों ही के हृदय में रहता है” (व.7:9, एम.एस.जी)।
लेकिन सभोपदेशक के लेखक बुद्धि और ज्ञान की सीमा को पहचानते हैं। पहला, हमारे पास चाहे कितनी बुद्धि और ज्ञान हो, हम भविष्य के विषय में किसी वस्तु को खोज नहीं सकते हैं (व.14)। दूसरा, “अत्यधिक-बुद्धिमान” होने में एक खतरा है। ज्ञान के लिए एक हानिकारक भूख होना संभव बात है जो कि परमेश्वर से अलग है, और इसलिए यह एक प्रकार का घमंड बन जाता हैः
“ अपने को बहुत सत्यनिष्ठ न बना, और न अपने को अधिक बुध्दिमान बना; तू क्यों अपने ही नाश का कारण हो? अत्यन्त दुष्ट भी न बन, और न मूर्ख हो; तू क्यों अपने समय से पहले मरे? “ (वव.16-17, एम.एस.जी)।
एक व्यक्ति चाहे जितना बुद्धिमान, अमीर और शक्तिशाली हो,”जब मृत्यु आती है, इसके ऊपर किसी के पास सामर्थ नहीं है (व.8)। “जीवन के बाद मृत्यु आती है। यह ऐसा ही है” (9:3, एम.एस.जी)। हम नहीं जानते हैं कि हमारा जीवन कब समाप्त होगा। “लोग नहीं जानते हैं कि उनका समय कब आएगा” (व.12)।
केवल परमेश्वर सब कुछ जानते हैं। उनकी तुलना में हमारी बुद्धि और ज्ञान बहुत ही सीमित हैं। आखिरकार हम “परमेश्वर के हाथों में हैं” (9:1)। हमें अपने जीवन का आनंद लेना चाहिए और यहाँ पर अपने समय का सही से इस्तेमाल करना चाहिए। जीवन को पकड़ लीजिए!..क्योंकि परमेश्वर आपके आनंद में आनंद मनाते हैं!.. अपनी प्यारी पत्नी के संग तेरे लिये ठहराए हैं, अपनी प्यारी पत्नी के संग में समय बिताना, क्योंकि तेरे जीवन और तेरे परिश्रम में जो तू सूर्य के नीचे करता है तेरा यही भाग है” (वव.7,9, एम.एस.जी)।
“ जो काम तुझे मिले उसे अपनी शक्ति भर करना” (व.10अ)। हमें हर क्षण और अवसर का लाभ लेने की आवश्यकता है।
यीशु ने कहा,” और अनन्त जीवन यह है कि वे तुझ एकमात्र सच्चे परमेश्वर को और यीशु मसीह को, जिसे तू ने भेजा है, जानें” (यूहन्ना 17:3)। यह सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान है जो आपके पास कभी भी हो सकता है। यह अभी शुरु होता है और अनंतता तक जाता है। यह ज्ञान हर दूसरे प्रकार के ज्ञान को सही दृष्टिकोण में रखता है।
प्रार्थना
परमेश्वर, आपका धन्यवाद क्योंकि आपको जानना बुद्धि का आरंभ है। मेरी सहायता कीजिए कि जीवन में हर अवसर का लाभ लूँ – और जो कुछ करुँ उसे अपनी पूरी शक्ति से करुँ। और मेरी सहायता कीजिए कि यें सब प्रेम में करुँ।
पिप्पा भी कहते है
भजनसंहिता 95:5
“समुद्र उनका है, क्योंकि उन्होंने इसे बनाया है...”
मैं समुद्र का सम्मान करती हूँ। जब कभी मैं समुद्र में नाव पर या तैर रही होती हूँ, तब मैं अपने आपसे यह वचन कहती हूँ।

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संदर्भ
जहाँ पर कुछ बताया न गया हो, उन वचनों को पवित्र बाइबल, न्यू इंटरनैशनल संस्करण एन्ग्लिसाइड से लिया गया है, कॉपीराइट © 1979, 1984, 2011 बिबलिका, पहले इंटरनैशनल बाइबल सोसाइटी, हूडर और स्टोगन पब्लिशर की अनुमति से प्रयोग किया गया, एक हॅचेट यूके कंपनी सभी अधिकार सुरक्षित। ‘एनआईवी’, बिबलिका यू के का पंजीकृत ट्रेडमार्क संख्या 1448790 है।
जिन वचनों को (एएमपी, AMP) से चिन्हित किया गया है उन्हें एम्प्लीफाइड® बाइबल से लिया गया है. कॉपीराइट © 1954, 1958, 1962, 1964, 1965, 1987 लॉकमैन फाउंडेशन द्वारा प्राप्त अनुमति से उपयोग किया गया है। (www.Lockman.org)
जिन वचनों को (एमएसजी MSG) से चिन्हित किया गया है उन्हें मैसेज से लिया गया है। कॉपीराइट © 1993, 1994, 1995, 1996, 2000, 2001, 2002. जिनका प्रयोग एनएवीप्रेस पब्लिशिंग ग्रुप की अनुमति से किया गया है।