दिन 33

घनिष्ठ मित्रता

बुद्धि भजन संहिता 18:7-15
नए करार मत्ती 21:33-22:14
जूना करार अय्यूब 25:1-29:25

परिचय

मैं अब तक जितने लोगों से मिला हूँ उनमें वह सबसे बुद्धिमान था। वह एक विद्वान और बुद्धिजीवी व्यक्ति था। उसका दिमाग बहुत अच्छा था। हम स्कूल और यूनिवर्सिटी में एक साथ थे। यीशु मसीह से पहली बार मुलाकात (पहले वर्ष के छात्र के रूप में) होने के तीन महीनों के बाद, उसे भी यीशु का अनुभव प्राप्त हुआ था। उसने तुरंत बहुत सी सैद्धांतिक किताबें पढ़नी शुरु कर दी थीं।

मुझे याद है उसके मसीही बनने के तुरंत बाद ही मैंने उससे पूछा था कि वह किस बारे में पढ़ रहा है। उसने जवाब दिया कि वह परमेश्वर की ‘श्रेष्ठता और दृढ़ता’ के बारे में पढ़ रहा है।

‘श्रेष्ठता’ और ‘दृढ़ता’ परमेश्वर के साथ हमारे संबंध के लगभग विरोधाभासी प्रकृति का वर्णन करते हैं। परमेश्वर की श्रेष्ठता का मतलब है कि परमेश्वर हमसे दूर रहते हैं और वह भौतिक सृष्टि की सीमाओं से परे हैं। वह ऊपर और परे हैं, श्रेष्ठ और उत्कृष्ट हैं तथा हमसे भी उत्तम हैं।

दूसरी तरफ, परमेश्वर की दृढ़ता का अर्थ है कि इनकी घनिष्ठ मित्रता का अनुभव करना असंभव है। हमारे आज के पुराने नियम के लेखांश में, अय्यूब ‘परमेश्वर की घनिष्ठ मित्रता’ के बारे में बताते हैं (अय्यूब 29:4)।

जब आप परमेश्वर की श्रेष्ठता को समझेंगे उसके बाद ही आप देख पाएंगे कि उनकी दृढ़ता कितनी अद्भुत है और परमेश्वर की घनिष्ठ मित्रता का अनुभव करना कितनी सौभाग्य की बात है।

बुद्धि

भजन संहिता 18:7-15

7 तब पृथ्वी हिल गई और काँप उठी;
 और पहाड़ों की नींव कंपित हो कर हिल गई
 क्योंकि यहोवा अति क्रोधित हुआ था!
8 परमेश्वर के नथनों से धुँआ निकल पड़ा।
 परमेश्वर के मुख से ज्वालायें फूट निकली,
 और उससे चिंगारियाँ छिटकी।
9 यहोवा स्वर्ग को चीर कर नीचे उतरा!
 सघन काले मेघ उसके पाँव तले थे।
10 उसने उड़ते करुब स्वर्गदूतों पर सवारी की वायु पर सवार हो
 वह ऊँचे उड़ चला।
11 यहोवा ने स्वयं को अँधेरे में छिपा लिया, उसको अम्बर का चँदोबा घिरा था।
 वह गरजते बादलों के सघन घटा—टोप में छिपा हुआ था।
12 परमेश्वर का तेज बादल चीर कर निकला।
 बरसा और बिजलियाँ कौंधी।
13 यहोवा का उद्घोष नाद अम्बर में गूँजा!
 परम परमेश्वर ने निज वाणी को सुनने दिया! फिर ओले बरसे और बिजलियाँ कौंध उठी।
14 यहोवा ने बाण छोड़े और शत्रु बिखर गये।
 उसके अनेक तड़ित बज्रों ने उनको पराजित किया।
15 हे यहोवा, तूने गर्जना की
 और मुख से आँधी प्रवाहित की।
 जल पीछे हट कर दबा और समुद्र का जल अतल दिखने लगा,
 और धरती की नींव तक उधड़ी।

समीक्षा

श्रेष्ठ परमेश्वर की आराधना कीजिये और उनकी अद्भुत उपस्थिति से प्यार कीजिये

दाऊद परमेश्वर की अद्भुत उपस्थिति का वर्णन करते हैं: ‘उनकी उपस्थिति की झलक से उसकी काली घटाएं फट गई; ओले और अंगारे। तब यहोवा आकाश में गरजा, और परमप्रधान ने अपनी वाणी सुनाई, ओले और अंगारे’ (पद - 12-13)।

इस भजन में हम सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर की शक्ति और क्रोध दोनों देखते हैं: ‘तब पृथ्वी हिल गई, और कांप उठी और पहाड़ों की नेवे कंपित होकर हिल गई क्योंकि वह अति क्रोधित हुआ था’ (पद - 7)। परमेश्वर का क्रोध (जो कि कभी भी दुर्भावनापूर्ण नहीं है) पाप के विरूद्ध उनका व्यक्तिगत क्रोध है।

यदि हम मानव तस्करी, बच्चों के शोषण, संस्थागत यातना, या अन्य भयंकर अन्याय को बिना क्रोध किये देखते हैं, तो हम प्यार करने में असफल हैं। बुराई के विरूद्ध क्रोध करना भलाई का अत्यावश्यक घटक है। इस भजन में हम देखते हैं कि परमेश्वर का क्रोध उनके प्रेम से पूर्णतया विपरीत है।

फिर भी, इस भजन में दाऊद परमेश्वर के साथ घनिष्ठ मित्रता का वर्णन करते हैं। यह ‘हे परमेश्वर, हे मेरे बल, मैं तुझ से प्रेम करता हूँ’ (पद - 1) से आरंभ होता है। दाऊद ने इसे हल्के में नहीं लिया। वह सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर के साथ अपनी घनिष्ठ मित्रता के सौभाग्य को जान गए।

प्रार्थना

प्रभु, मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि मैं इस सृष्टि के रचियता के साथ घनिष्ठ मित्रता कर सकता हूँ। मैं आप से प्रेम करता हूँ, हे प्रभु, तू ही मेरा बल।

नए करार

मत्ती 21:33-22:14

परमेश्वर का अपने पुत्र को भेजना

33 “एक और दृष्टान्त सुनो: एक ज़मींदार था। उसने अंगूरों का एक बगीचा लगाया और उसके चारों ओर बाड़ लग दी। फिर अंगूरों का रस निकालने का गरठ लगाने को एक गडढ़ा खोदा और रखवाली के लिए एक मीनार बनायी। फिर उसे बटाई पर देकर वह यात्रा पर चला गया। 34 जब अंगूर उतारने का समय आया तो बगीचे के मालिक ने किसानों के पास अपने दास भेजे ताकि वे अपने हिस्से के अंगूर ले आयें।

35 “किन्तु किसानों ने उसके दासों को पकड़ लिया। किसी की पिटाई की, किसी पर पत्थर फेंके और किसी को तो मार ही डाला। 36 एक बार फिर उसने पहले से और अधिक दास भेजे। उन किसानों ने उनके साथ भी वैसा ही बर्ताव किया। 37 बाद में उसने उनके पास अपने बेटे को भेजा। उसने कहा, ‘वे मेरे बेटे का तो मान रखेंगे ही।’

38 “किन्तु उन किसानों ने जब उसके बेटे को देखा तो वे आपस में कहने लगे, ‘यह तो उसका उत्तराधिकारी है, आओ इसे मार डालें और उसका उत्तराधिकार हथिया लें।’ 39 सो उन्होंने उसे पकड़ कर बगीचे के बाहर धकेल दिया और मार डाला।

40 “तुम क्या सोचते हो जब वहाँ अंगूरों के बगीचे का मालिक आयेगा तो उन किसानों के साथ क्या करेगा?”

41 उन्होंने उससे कहा, “क्योंकि वे निर्दय थे इसलिए वह उन्हें बेरहमी से मार डालेगा और अंगूरों के बगीचे को दूसरे किसानों को बटाई पर दे देगा जो फसल आने पर उसे उसका हिस्सा देंगें।”

42 यीशु ने उनसे कहा, “क्या तुमने शास्त्र का वह वचन नहीं पढ़ा:

‘जिस पत्थर को मकान बनाने वालों ने बेकार समझा, वही कोने का सबसे अधिक महत्वपूर्ण पत्थर बन गया?
ऐसा प्रभु के द्वारा किया गया जो हमारी दृष्टि में अद्भुत है।’

43 “इसलिये मैं तुमसे कहता हूँ परमेश्वर का राज्य तुमसे छीन लिया जायेगा और वह उन लोगों को दे दिया जायेगा जो उसके राज्य के अनुसार बर्ताव करेंगे। 44 जो इस चट्टान पर गिरेगा, टुकड़े टुकड़े हो जायेगा और यदि यह चट्टान किसी पर गिरेगी तो उसे रौंद डालेगी।”

45 जब प्रमुख याजकों और फरीसियों ने यीशु की दृष्टान्त कथाएँ सुनीं तो वे ताड़ गये कि वह उन्हीं के बारे में कह रहा था। 46 सो उन्होंने उसे पकड़ने का जतन किया किन्तु वे लोगों से डरते थे क्योंकि लोग यीशु को नबी मानते थे।

विवाह भोज पर लोगों को राजा के बुलावे की दृष्टान्त कथा

22एक बार फिर यीशु उनसे दृष्टान्त कथाएँ कहने लगा। वह बोला, 2 “स्वर्ग का राज्य उस राजा के जैसा है जिसने अपने बेटे के ब्याह पर दावत दी। 3 राजा ने अपने दासों को भेजा कि वे उन लोगों को बुला लायें जिन्हें विवाह भोज पर न्योता दिया गया हे। किन्तु वे लोग नहीं आये।

4 “उसने अपने सेवकों को फिर भेजा, उसने कहा कि जिन लोगों को विवाह भोज पर बुलाया गया है उनसे कहो, ‘देखो मेरी दावत तैयार है। मेरे साँडों और मोटे ताजे पशुओं को काटा जा चुका है। सब कुछ तैयार है। ब्याह की दावत में आ जाओ।’

5 “पर लोगों ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया और वे चले गये। कोई अपने खेतों में काम करने चला गया तो कोई अपने काम धन्धे पर। 6 और कुछ लोगों ने तो राजा के सेवकों को पकड़ कर उनके साथ मार-पीट की और उन्हें मार डाला। 7 सो राजा ने क्रोधित होकर अपने सैनिक भेजे। उन्होंने उन हत्यारों को मौत के घाट उतार दिया और उनके नगर में आग लगा दी।

8 “फिर राजा ने सेवकों से कहा, ‘विवाह भोज तैयार है किन्तु जिन्हें बुलाया गया था, वे अयोग्य सिद्ध हुए। 9 इसलिये गली के नुक्कड़ों पर जाओ और तुम जिसे भी पाओ ब्याह की दावत पर बुला लाओ।’ 10 फिर सेवक गलियों में गये और जो भी भले बुरे लोग उन्हें मिले वे उन्हें बुला लाये। और शादी का महल मेहमानों से भर गया।

11 “किन्तु जब मेहमानों को देखने राजा आया तो वहाँ उसने एक ऐसा व्यक्ति देखा जिसने विवाह के वस्त्र नहीं पहने थे। 12 राजा ने उससे कहा, ‘हे मित्र, विवाह के वस्त्र पहने बिना तू यहाँ भीतर कैसे आ गया?’ पर वह व्यक्ति चुप रहा। 13 इस पर राजा ने अपने सेवकों से कहा, ‘इसके हाथ-पाँव बाँध कर बाहर अन्धेरे में फेंक दो। जहाँ लोग रोते और दाँत पीसते होंगे।’

14 “क्योंकि बुलाये तो बहुत गये हैं पर चुने हुए थोड़े से हैं।”

समीक्षा

परमेश्वर के निमंत्रण को स्वीकारें और उनके साथ घनिष्ठ मित्रता का आनंद उठाएं

यू.के. में पिछली दो राजसी विवाह हुए थे जो कि राजकुमार विलियम और कॅथरिम मिडलटन के बीच – और अब ड्यूक और कैम्ब्रिज के डॅचेस के बीच हुए थे। कल्पना कीजिये जब आप डाक खोलें और उसमें आपको उनके विवाह का आमंत्रण मिले तो कैसा लगेगा? यीशु कहते हैं हम सबको सदा काल के सबसे बड़े राजसी - विवाह का आमंत्रण दिया गया है।

यीशु परमेश्वर के राज्य का वर्णन दाख की बारी और एक विवाह के भोज रूप में करते हैं। ये दोनों तस्वीरें परमेश्वर की उदारता और हमारे, प्रति उनके अद्भुत प्रेम को बयान करती है।

लेकिन परमेश्वर का प्रेम भावुकतापूर्ण नहीं है। एक बार फिर, हम परमेश्वर के प्रेम और दया का विपरीत पहलू देखते हैं, जो कि उन लोगों का न्याय करना है जो उनके प्रेम को ठुकरा कर दुष्टता कर रहे हैं (21:35 से आगे)। ‘पर जब किसानों ने उसके दासों को पकड़ के, किसी को पीटा, और किसी को मार डाला; और किसी को पत्थरवाह किया ’ (पद - 35) और अंत में विद्रोह के कार्य में जब उन्होंने उनके पुत्र को दाख की बारी से निकालकर मार डाला (पद - 39), तो उन पर दंड आया (पद - 41)।

यीशु खुद की मृत्यु के बारे में पहले से बता रहे हैं। वही ‘पुत्र’ और ‘वारिस’ हैं (पद - 37-38) जिन्हें परमेश्वर ने भेजा है। फिर भी, उन लोगों ने उन्हें मार डाला (पद - 39)। यीशु ने कहा कि मैं वही पत्थर हूँ जिसे राजमिस्त्रियों ने निकम्मा ठहराया (पद - 42)। यीशु का इंकार करने की वजह से उनका न्याय होगा (वे लोग यीशु को गिरफ्तार करने का कारण ढूँढ़ रहे थे (पद - 46)।

उसी तरह विवाह के भोज में आने के लिए और परमेश्वर अपने साथ घनिष्ठ मित्रता करने के लिए खुला आमंत्रण दे रहे हैं। उनके राजसी - विवाह में उपस्थित रहने का आमंत्रण पाना बड़े सौभाग्य की बात है। यह एक मूल्यवान (पद - 4) और खुला आमंत्रण है (पद - 9-10)। इसमें सभी लोग आमंत्रित हैं। इस आमंत्रण को बार - बार दोहराया गया है (पद - 1-4)।

मैंने इसे दिलचस्प पाया है कि यीशु परमेश्वर के राज्य की तुलना एक भोज से करते हैं। ज़्यादातर लोग परमेश्वर के बारे में जो सोचते हैं, यह उसके ठीक विपरीत है। वे इसे गंभीर और उदासपूर्ण, अरूचिकर और उबाऊ समझते हैं। लेकिन यीशु कहते हैं कि परमेश्वर का राज्य एक उत्सव है। यह एक उत्सव है जहाँ बहुत सारी हँसी, आनंद और दावतें हैं।

फिर भी ‘वे बेपरवाई करके चल दिए: कोई अपने खेत को, कोई अपने व्यापार को’ (22:5)। यीशु के साथ संबंध बनाने की अपेक्षा उन्होंने अपने काम - धंधे और धन - संपत्ति को ज़्यादा प्राथमिकता दी। कुछ लोग अत्यधिक कठोर और शत्रुतापूर्ण थे – ‘औरों ने जो बच गए थे उसके दासों को पकड़कर उन का अनादर किया और मार डाला’ (पद - 6)। यीशु कहते हैं, ‘फिर राजा ने क्रोध किया’ (पद - 7)।

परमेश्वर का निमंत्रण ऐसा नहीं है जिसे आप गंभीरता से न लेते हुए इसे हल्के में लें। यह एक आश्चर्यजनक और अद्भुत आमंत्रण है। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि प्रतापी परमेश्वर अपने साथ घनिष्ठ मित्रता करने के लिए आपको बुला रहे हैं। आपके पास विवाह में जाने के लिए उचित कपड़े होने चाहिये (पद - 11-13)। आप अपनी शर्तों पर परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते – बल्कि सिर्फ यीशु की शर्तों पर। धन्यवाद रूप से, उनकी मृत्यु और पुनरूत्थान और पवित्र आत्मा के वरदान के द्वारा, यीशु ने आपको आवश्यक पोशाक दी है।

प्रार्थना

प्रभु, आपका धन्यवाद कि आपके प्रेम में, आपने मेरे लिए एक भोज का आयोजन किया है। आज, आपके साथ घनिष्ठ मित्रता का आनंद लेने के लिए मैं आपके आमंत्रण को स्वीकारता हूँ और आपके पास आता हूँ।

जूना करार

अय्यूब 25:1-29:25

बिल्दद का अय्यूब को उत्तर

25फिर शूह प्रदेश के निवासी बिल्दद ने उत्तर देते हुये कहा:

2 “परमेश्वर शासक है और हर व्यक्ति को चाहिये की
 परमेश्वर से डरे और उसका मान करे।
 परमेश्वर अपने स्वर्ग के राज्य में शांति रखता है।
3 कोई उसकी सेनाओं को गिन नहीं सकता है,
 परमेश्वर का प्रकाश सब पर चमकता है।
4 किन्तु सचमुच परमेश्वर के आगे कोई व्यक्ति उचित नहीं ठहर सकता है।
 कोई व्यक्ति जो स्त्री से उत्पन्न हुआ सचमुच निर्दोष नहीं हो सकता है।
5 परमेश्वर की आँखों के सामने चाँद तक चमकीला नहीं है।
 परमेश्वर की आँखों के सामने तारे निर्मल नहीं हैं।
6 मनुष्य तो बहुत कम भले है।
 मनुष्य तो बस गिंडार है एक ऐसा कीड़ा जो बेकार का होता है।”

अय्यूब का बिल्दद को उत्तर:

26तब अय्यूब ने कहा:

2 “हे बिल्दद, सोपर और एलीपज जो लोग दुर्बल हैं तुम सचमुच उनको सहारा दे सकते हो।
 अरे हाँ! तुमने दुर्बल बाँहों को फिर से शक्तिशाली बनाया है।
3 हाँ, तुमने निर्बुद्धि को अद्भुत सम्मत्ति दी है।
 कैसा महाज्ञान तुमने दिखाया है!
4 इन बातों को कहने में किसने तुम्हारी सहायता की?
 किसकी आत्मा ने तुम को प्रेरणा दी?

5 “जो लोग मर गये है
 उनकी आत्मायें धरती के नीचे जल में भय से प्रकंपित हैं।
6 मृत्यु का स्थान परमेश्वर की आँखों के सामने खुला है,
 परमेश्वर के आगे विनाश का स्थान ढका नहीं है।
7 उत्तर के नभ को परमेश्वर फैलाता है।
 परमेश्वर ने व्योम के रिक्त पर अधर में धरती लटकायी है।
8 परमेश्वर बादलों को जल से भरता है,
 किन्तु जल के प्रभार से परमेश्वर बादलों को फटने नहीं देता है।
9 परमेश्वर पूरे चन्द्रमा को ढकता है,
 परमेश्वर चाँद पर निज बादल फैलाता है और उसको ढक देता है।
10 परमेश्वर क्षितिज को रचता है
 प्रकाश और अन्धकार की सीमा रेखा के रूप में समुद्र पर।
11 जब परमेश्वर डाँटता है तो
 वे नीवें जिन पर आकाश टिका है भय से काँपने लगती है।
12 परमेश्वर की शक्ति सागर को शांत कर देती है।
 परमेश्वर की बुद्धि ने राहब (सागर के दैत्य) को नष्ट किया।
13 परमेश्वर का श्वास नभ को साफ कर देता है।
 परमेश्वर के हाथ ने उस साँप को मार दिया जिसमें भाग जाने का यत्न किया था।
14 ये तो परमेश्वर के आश्चर्यकर्मों की थोड़ी सी बातें हैं।
 बस हम थोड़ा सा परमेश्वर के हल्की—ध्वनि भरे स्वर को सुनते हैं।
 किन्तु सचमुच कोई व्यक्ति परमेश्वर के शक्ति के गर्जन को नहीं समझ सकता है।”

27फिर अय्यूब ने आगे कहा:

2 “सचमुच परमेश्वर जीता है और यह जितना सत्य है कि परमेश्वर जीता है
 सचमुच वह वैसे ही मेरे प्रति अन्यायपूर्ण रहा है।
 हाँ! सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने मेरे जीवन में कड़वाहट भरी है।
3 किन्तु जब तक मुझ में प्राण है
 और परमेश्वर का साँस मेरी नाक में है।
4 तब तक मेरे होंठ बुरी बातें नहीं बोलेंगी,
 और मेरी जीभ कभी झूठ नहीं बोलेगी।
5 मैं कभी नहीं मानूँगा कि तुम लोग सही हो!
 जब तक मैं मरूँगा उस दिन तक कहता रहूँगा कि मैं निर्दोष हूँ!
6 मैं अपनी धार्मिकता को दृढ़ता से थामें रहूँगा।
 मैं कभी उचित कर्म करना न छोडूँगा।
 मेरी चेतना मुझे तंग नहीं करेगी जब तक मैं जीता हूँ।
7 मेरे शत्रुओं को दुष्ट जैसा बनने दे,
 और उन्हें दण्डित होने दे जैसे दुष्ट जन दण्डित होते हैं।
8 ऐसे उस व्यक्ति के लिये मरते समय कोई आशा नहीं है जो परमेश्वर की परवाह नहीं करता है।
 जब परमेश्वर उसके प्राण लेगा तब तक उसके लिये कोई आशा नहीं है।
9 जब वह बुरा व्यक्ति दु:खी पड़ेगा और उसको पुकारेगा,
 परमेश्वर नहीं सुनेगा।
10 उसको चाहिये था कि वह उस आनन्द को चाहे जिसे केवल सर्वशक्तिमान परमेश्वर देता है।
 उसको चाहिये की वह हर समय परमेश्वर से प्रार्थना करता रहा।

11 “मैं तुमको परमेश्वर की शक्ति सिखाऊँगा।
 मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर की योजनायें नहीं छिपाऊँगा।
12 स्वयं तूने निज आँखों से परमेश्वर की शक्ति देखी है,
 सो क्यों तू व्यर्थ बातें बनाता है

13 “दुष्ट लोगों के लिये परमेश्वर ने ऐसी योजना बनाई है,
 दुष्ट लोगों को सर्वशक्तिशाली परमेश्वर से ऐसा ही मिलेगा।
14 दुष्ट की चाहे कितनी ही संताने हों, किन्तु उसकी संताने युद्ध में मारी जायेंगी।
 दुष्ट की संताने कभी भरपेट खाना नहीं पायेंगी।
15 और यदि दुष्ट की संताने उसकी मृत्यु के बाद भी जीवित रहें तो महामारी उनको मार डालेंगी!
 उनके पुत्रों की विधवायें उनके लिये दु:खी नहीं होंगी।
16 दुष्ट जन चाहे चाँदी के ढेर इकट्ठा करे,
 इतने विशाल ढेर जितनी धूल होती है, मिट्टी के ढेरों जैसे वस्त्र हो उसके पास
17 जिन वस्त्रों को दुष्ट जन जुटाता रहा उन वस्त्रों को सज्जन पहनेगा,
 दुष्ट की चाँदी निर्दोषों में बँटेगी।
18 दुष्ट का बनाया हुआ घर अधिक दिनों नहीं टिकता है,
 वह मकड़ी के जाले सा अथवा किसी चौकीदार के छप्पर जैसा अस्थिर होता है।
19 दुष्ट जन अपनी निज दौलत के साथ अपने बिस्तर पर सोने जाता है,
 किन्तु एक ऐसा दिन आयेगा जब वह फिर बिस्तर में वैसे ही नहीं जा पायेगा।
 जब वह आँख खोलेगा तो उसकी सम्पत्ति जा चुकेगी।
20 दु:ख अचानक आई हुई बाढ़ सा उसको झपट लेंगे,
 उसको रातों रात तूफान उड़ा ले जायेगा।
21 पुरवाई पवन उसको दूर उड़ा देगी,
 तूफान उसको बुहार कर उसके घर के बाहर करेगा।
22 दुष्ट जन तूफान की शक्ति से बाहर निकलने का जतन करेगा
 किन्तु तूफान उस पर बिना दया किये हुए चपेट मारेगा।
23 जब दुष्ट जन भागेगा, लोग उस पर तालियाँ बजायेंगे, दुष्ट जन जब निकल भागेगा।
 अपने घर से तो लोग उस पर सीटियाँ बजायेंगे।

28“वहाँ चाँदी की खान है जहाँ लोग चाँदी पाते है,
 वहाँ ऐसे स्थान है जहाँ लोग सोना पिघला करके उसे शुद्ध करते हैं।
2 लोग धरती से खोद कर लोहा निकालते है,
 और चट्टानों से पिघला कर ताँबा निकालते हैं।
3 लोग गुफाओं में प्रकाश को लाते हैं वे गुफाओं की गहराई में खोजा करते हैं,
 गहरे अन्धेरे में वे खनिज की चट्टानें खोजते हैं।
4 जहाँ लोग रहते है उससे बहुत दूर लोग गहरे गढ़े खोदा करते हैं
 कभी किसी और ने इन गढ़ों को नहीं छुआ।
 जब व्यक्ति गहन गर्तो में रस्से से लटकता है, तो वह दूसरों से बहुत दूर होता है।
5 भोजन धरती की सतह से मिला करता है,
 किन्तु धरती के भीतर वह बढ़त जाया करता है
 जैसे आग वस्तुओं को बदल देती है।
6 धरती के भीतर चट्टानों के नीचे नीलम मिल जाते हैं,
 और धरती के नीचे मिट्टी अपने आप में सोना रखती है।
7 जंगल के पक्षी धरती के नीचे की राहें नहीं जानते हैं
 न ही कोई बाज यह मार्ग देखता है।
8 इस राह पर हिंसक पशु नहीं चले,
 कभी सिंह इस राह पर नहीं विचरे।
9 मजदूर कठिन चट्टानों को खोदते हैं
 और पहाड़ों को वे खोद कर जड़ से साफ कर देते हैं।
10 काम करने वाले सुरंगे काटते हैं,
 वे चट्टान के खजाने को चट्टानों के भीतर देख लिया करते हैं।
11 काम करने वाले बाँध बाँधा करते हैं कि पानी कहीं ऊपर से होकर न वह जाये।
 वे छुपी हुई वस्तुओं को ऊपर प्रकाश में लाते हैं।

12 “किन्तु कोई व्यक्ति विवेक कहाँ पा सकता है
 और हम कहाँ जा सकते हैं समझ पाने को
13 ज्ञान कहाँ रहता है लोग नहीं जानते हैं,
 लोग जो धरती पर रहते हैं, उनमें विवेक नहीं रहता है।
14 सागर की गहराई कहती है, ‘मुझ में विवेक नहीं।’
 और समुद्र कहता है, ‘यहाँ मुझ में ज्ञान नहीं है।’
15 विवेक को अति मूल्यवान सोना भी मोल नहीं ले सकता है,
 विवेक का मूल्य चाँदी से नहीं गिना जा सकता है।
16 विवेक ओपीर देश के सोने से
 अथवा मूल्यवान स्फटिक से अथवा नीलमणियों से नहीं खरीदा जा सकता है।
17 विवेक सोने और स्फटिक से अधिक मूल्यवान है,
 कोई व्यक्ति अति मूल्यवान सुवर्ण जड़ित रत्नों से विवेक नहीं खरीद सकता है।
18 विवेक मूंगे और सूर्यकांत मणि से अति मूल्यवान है।
 विवेक मानक मणियों से अधिक महंगा है।
19 जितना उत्तम विवेक है कूश देश का पदमराग भी उतना उत्तम नहीं है।
 विवेक को तुम कुन्दन से मोल नहीं ले सकते हो।

20 “तो फिर हम कहाँ विवेक को पाने जायें?
 हम कहाँ समझ सीखने जायें?
21 विवेक धरती के हर व्यक्ति से छुपा हुआ है।
 यहाँ तक की ऊँचे आकाश के पक्षी भी विवेक को नहीं देख पाते हैं।
22 मृत्यु और विनाश कहा करते है कि
 हमने तो बस विवेक की बाते सुनी हैं।

23 “किन्तु बस परमेश्वर विवेक तक पहुँचने की राह को जानता है।
 परमेश्वर जानता है विवेक कहाँ रहता है।
24 परमेश्वर विवेक को जानता है क्योंकि वह धरती के आखिरी छोर तक देखा करता है।
 परमेश्वर हर उस वस्तु को जो आकाश के नीचे है देखा करता है।
25 जब परमेश्वर ने पवन को उसकी शक्ति प्रदान की
 और यह निश्चित किया कि समुद्रों को कितना बड़ा बनाना है।
26 और जब परमेश्वर ने निश्चय किया कि उसे कहाँ वर्षा को भेजना है,
 और बवण्डरों को कहाँ की यात्रा करनी है।
27 तब परमेश्वर ने विवेक को देखा था,
 और उसको यह देखने के लिये परखा था कि विवेक का कितना मूल्य है, तब परमेश्वर ने विवेक का समर्थन किया था।
28 और लोगों से परमेश्वर ने कहा था कि
 ‘यहोवा का भय मानो और उसको आदर दो।
 बुराईयों से मुख मोड़ना ही विवेक है, यही समझदारी है।’”

अय्यूब अपनी बात जारी रखता है

29अपनी बात को जारी रखते हुये अय्यूब ने कहा:

2 “काश! मेरा जीवन वैसा ही होता जैसा गुजरे महीनों में था।
 जब परमेश्वर मेरी रखवाली करता था, और मेरा ध्यान रखता था।
3 मैं ऐसे उस समय की इच्छा करता हूँ जब परमेश्वर का प्रकाश मेरे शीश पर चमक रहा था।
 मुझ को प्रकाश दिखाने को उस समय जब मैं अन्धेरे से हो कर चला करता था।
4 ऐसे उन दिनों की मैं इच्छा करता हूँ, जब मेरा जीवन सफल था और परमेश्वर मेरा निकट मित्र था।
 वे ऐसे दिन थे जब परमेश्वर ने मेरे घर को आशीष दी थी।
5 ऐसे समय की मैं इच्छा करता हूँ, जब सर्वशक्तिशाली परमेश्वर अभी तक मेरे साथ में था
 और मेरे पास मेरे बच्चे थे।
6 ऐसा तब था जब मेरा जीवन बहुत अच्छा था, ऐसा लगा करता था कि दूध—दही की नदियाँ बहा करती थी,
 और मेरे हेतू चट्टाने जैतून के तेल की नदियाँ उँडेल रही हैं।

7 “ये वे दिन थे जब मैं नगर—द्वार और खुले स्थानों में जाता था,
 और नगर नेताओं के साथ बैठता था।
8 वहाँ सभी लोग मेरा मान किया करते थे।
 युवा पुरुष जब मुझे देखते थे तो मेरी राह से हट जाया करते थे।
 और वृद्ध पुरुष मेरे प्रति सम्मान दर्शाने के लिये उठ खड़े होते थे।
9 जब लोगों के मुखिया मुझे देख लेते थे,
 तो बोलना बन्द किया करते थे।
10 यहाँ तक की अत्यन्त महत्वपूर्ण नेता भी अपना स्वर नीचा कर लेते थे,
 जब मैं उनके निकट जाया करता था।
 हाँ! ऐसा लगा करता था कि
 उनकी जिहवायें उनके तालू से चिपकी हों।
11 जिस किसी ने भी मुझको बोलते सुना, मेरे विषय में अच्छी बात कही,
 जिस किसी ने भी मुझको देखा था, मेरी प्रशंसा की थी।
12 क्यों? क्योंकि जब किसी दीन ने सहायता के लिये पुकारा, मैंने सहायता की।
 उस बच्चे को मैंने सहारा दिया जिसके माँ बाप नहीं और जिसका कोई भी नहीं ध्यान रखने को।
13 मुझको मरते हुये व्यक्ति की आशीष मिली,
 मैंने उन विधवाओं को जो जरुरत में थी,
 मैंने सहारा दिया और उनको खुश किया।
14 मेरा वस्त्र खरा जीवन था,
 निष्पक्षता मेरे चोगे और मेरी पगड़ी सी थी।
15 मैं अंधो के लिये आँखे बन गया
 और मैं उनके पैर बना जिनके पैर नहीं थे।
16 दीन लोगों के लिये मैं पिता के तुल्य था,
 मैं पक्ष लिया करता था ऐसे अनजानों का जो विपत्ति में पड़े थे।
17 मैं दुष्ट लोगों की शक्ति नष्ट करता था।
 निर्दोष लोगों को मैं दुष्टों से छुड़ाता था।

18 “मैं सोचा करता था कि सदा जीऊँगा
 ओर बहुत दिनों बाद फिर अपने ही घर में प्राण त्यागूँगा।
19 मैं एक ऐसा स्वस्थ वृक्ष बनूँगा जिसकी जड़े सदा जल में रहती हों
 और जिसकी शाखायें सदा ओस से भीगी रहती हों।
20 मेरी शान सदा ही नई बनी रहेगी,
 मैं सदा वैसा ही बलवान रहूँगा जैसे,
 मेरे हाथ में एक नया धनुष।

21 “पहले, लोग मेरी बात सुना करते थे,
 और वे जब मेरी सम्मत्ति की प्रतीक्षा किया करते थे,
 तो चुप रहा करते थे।
22 मेरे बोल चुकने के बाद, उन लोगों के पास जो मेरी बात सुनते थे, कुछ भी बोलने को नहीं होता था।
 मेरे शब्द धीरे—धीरे उनके कानों में वर्षा की तरह पड़ा करते थे।
23 लोग जैसे वर्षा की बाट जोहते हैं वैसे ही वे मेरे बोलने की बाट जोहा करते थे।
 मेरे शब्दों को वे पी जाया करते थे, जैसे मेरे शब्द बसन्त में वर्षा हों।
24 जब मैं दया करने को उन पर मुस्कराता था, तो उन्हें इसका यकीन नहीं होता था।
 फिर मेरा प्रसन्न मुख दु:खी जन को सुख देता था।
25 मैंने उत्तरदायित्व लिया और लोगों के लिये निर्णय किये, मैं नेता बन गया।
 मैंने उनकी सेना के दलों के बीच राजा जैसा जीवन जिया।
 मैं ऐसा व्यक्ति था जो उन लोगों को चैन देता था जो बहुत ही दु:खी है।

समीक्षा

परमेश्वर की श्रेष्ठता और उनकी दृढ़ता को समझें

आप जिन परेशानियों और समस्याओं का सामना कर रहे हैं उसके प्रति क्या आपने कभी पूर्णतया पराजित महसूस किया है? क्या आपको संदेह है कि परमेश्वर सामर्थी हैं या नहीं अथवा क्या वे आपकी सहायता करना चाहते हैं या नहीं?

अय्यूब परमेश्वर की श्रेष्ठता को समझ गया था। वह कहता है, ‘मैं तुम्हें ईश्वर के काम के विषय में शिक्षा दूंगा’ (27:11अ)। वह बताता है कि अपने आस - पास स्वाभाविक दुनिया में परमेश्वर की सामर्थ जो देखते हैं ‘वह उनके कार्य की ऊपरी सतह है’ (पद - 12)।

परमेश्वर आपकी सहायता करने में सामर्थी हैं।

परमेश्वर आपकी मदद करने में केवल सामर्थी ही नहीं है, बल्कि ऐसा करने के लिए वह आपसे प्रेम भी करते हैं। अय्यूब परमेश्वर की दृढ़ता के बारे में सबकुछ जानते थे। उन्हें ‘परमेश्वर की घनिष्ठ मित्रता का अनुभव था’ (29:4) जहाँ सच्ची बुद्धि पाई जाती है।

‘परमेश्वर का भय मानना यही बुद्धि और अंतर्दृष्टि है, और बुराई से दूर रहना यही समझ है’ (28:28, एम.एस.जी.)। परमेश्वर का भय मानना यानि परमेश्वर का आदर करना है। अब हम जान गए हैं कि यीशु मसीह परमेश्वर की बुद्धि हैं। उनके साथ घनिष्ठ मित्रता में आप सच्ची बुद्धि प्राप्त करते हैं।

अय्यूब बुद्धि की अपरिमित कीमत का वर्णन करते हैं: ‘परन्तु बुद्धि कहां मिल सकती है?.... चोखे सोने से वह मोल लिया नहीं जाता। और न उसके दाम के लिये चान्दी तौली जाती है…. परन्तु परमेश्वर उसका मार्ग समझता है, और उसका स्थान उसको मालूम है…. प्रभु का भय मानना यही बुद्धि है: और बुराई से दूर रहना यही समझ है’ (28:12,15-28)।

यह किस प्रकार के जीवन में ले जाता है? यह बुराई से दूर रहने के जीवन में (पद - 28) और गरीबों की सेवा करने के जीवन में ले जाएगा (29:12)। अय्यूब सच्चे धार्मिक जीवन का वर्णन ‘दीन जन।।। अनाथों… नाश होने वाले लोगों…. विधवाओं…. अंधों…. लंगड़ों…. ज़रूरतमंदों ….और अंजान लोगों’ की सेवा करने के रूप में करते हैं।

जब आप परमेश्वर के साथ घनिष्ठ संबंध में आते हैं, तो उनकी चिंता आपकी चिंता बन जाती है। अय्यूब की तरह, आप भी गरीबों, अनाथों, बेघर लोगों और विधवाओं की मदद करना चाहेंगे। आप अन्याय से पीड़ित लोगों को बचाना चाहेंगे। आप अपने देश में अंधों, लंगड़ों, ज़रूरतमंदों और शरणागतों को ढूँढेंगे।

वास्तव में अय्यूब ने परमेश्वर के साथ अपनी घनिष्ठ मित्रता को गंवाया नहीं था। बल्कि, उस समय वह बता रहा था कि वह इसका एहसास नहीं कर पा रहा है। वह अत्यधिक कष्ट में से गुज़र रहा था। उसे ऐसा लग रहा था कि परमेश्वर उससे मीलों दूर हैं। इस समय आप भी ऐसा महसूस कर रहे होंगे। यदि ऐसा है, तो आप अय्यूब की कहानी से उत्साहित हो जाइये।

जब हम अय्यूब की पुस्तक के अंत में आते हैं, तो हम जान जाते हैं कि परमेश्वर ने उसे कभी नहीं छोड़ा था। परमेश्वर उसे इतना आशीष देने वाले थे जितना कि उसने कभी मांगा नहीं था या कल्पना भी नहीं की थी। परमेश्वर उसे अपने साथ घनिष्ठ मित्रता के एहसास को बहाल करने वाले थे।

यीशु के द्वारा, अब हम सब सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर के साथ घनिष्ठ मित्रता का अनुभव कर सकते हैं और अपने जीवन में उनकी असीमित आशीषों को जान सकते हैं।

प्रार्थना

प्रभु, अय्यूब के उदाहरण के लिए आपका धन्यवाद। कष्ट के समय में, मैं अपने जीवन में आपकी घनिष्ठ मित्रता और आशीषों के वायदे को पकड़े रहूँगा। जब मैं आपके करीब आता हूँ, तब अन्याय और दीन जनों के प्रति आपकी चिंता मेरी चिंता बन जाती है।

पिप्पा भी कहते है

हम सब अपने दोस्तों को उनकी ज़रूरत के समय में सांत्वना देने जाते हैं पर अय्यूब के दोस्त कम से कम उसके पास गए तो सही। कभी-कभी, उनके कष्ट को समझने या उनकी मदद करने की कोशिश में हम वह सब बोल जाते हैं जो उस समय ज़रा भी लाभकारी नहीं होते! जब वे कष्ट में होते हैं तो यह जानना बहुत मुश्किल हो जाता है कि उनकी मदद कैसे की जाए। कुछ लोग बिल्कुल सही समझ पाते हैं, लेकिन अक्सर सबसे अच्छी बात सुनना और प्रार्थना करना है।

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संदर्भ

नोट्स:

जहाँ पर कुछ बताया न गया हो, उन वचनों को पवित्र बाइबल, न्यू इंटरनैशनल संस्करण एन्ग्लिसाइड से लिया गया है, कॉपीराइट © 1979, 1984, 2011 बिबलिका, पहले इंटरनैशनल बाइबल सोसाइटी, हूडर और स्टोगन पब्लिशर की अनुमति से प्रयोग किया गया, एक हॅचेट यूके कंपनी सभी अधिकार सुरक्षित। ‘एनआईवी’, बिबलिका यू के का पंजीकृत ट्रेडमार्क संख्या 1448790 है।

जिन वचनों को (एएमपी, AMP) से चिन्हित किया गया है उन्हें एम्प्लीफाइड® बाइबल से लिया गया है। कॉपीराइट © 1954, 1958, 1962, 1964, 1965, 1987 लॉकमैन फाउंडेशन द्वारा प्राप्त अनुमति से उपयोग किया गया है। (www.Lockman.org)

जिन वचनों को (एमएसजी MSG) से चिन्हित किया गया है उन्हें मैसेज से लिया गया है। कॉपीराइट © 1993, 1994, 1995, 1996, 2000, 2001, 2002. जिनका प्रयोग एनएवीप्रेस पब्लिशिंग ग्रुप की अनुमति से किया गया है।

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