दिन 35

एक प्रभावशाली व्यक्ति कैसे बना जाए

बुद्धि भजन संहिता 18:25-36
नए करार मत्ती 23:1-39
जूना करार अय्यूब 33:1-34:37

परिचय

जॉन मैक्सवेल लिखते हैं, 'लीडरशिप एक प्रभाव है,' जिनकी संस्थान ने पूरी दुनिया में दस लाख से भी ज़्यादा लीडर्स को प्रशिक्षित किया है। वह बताते हैं कि, समाजशास्त्रीयों के अनुसार, सबसे ज़्यादा अंतर्मुखी व्यक्ति भी अपने पूरे जीवन काल में 10,000 से भी ज़्यादा लोगों को प्रभावित करेगा!

एक तरह से केवल एक ही लीडर होता है। हमारे आज के नये नियम के पाठ्यांश में, यीशु कहते हैं, ‘तुम्हारा एक ही गुरू है…. मसीह’ (मत्ती 23:10, एम.एस.जी.)। दूसरी तरफ हर एक मसीह को एक लीडर बुलाया जाता है, इस धारणा से कि दूसरे लोग आपको एक उदाहरण के रूप में देखेंगे। अलग - अलग तरह से दूसरों पर आपका प्रभाव पड़ता है। दूसरों को प्रभावित करने के लिए परमेश्वर द्वारा आपको बुलाया जाना एक सौभाग्य की बात है, लेकिन इसमें बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है।

बुद्धि

भजन संहिता 18:25-36

25 हे यहोवा, तू विश्वसनीय लोगों के साथ विश्वसनीय
 और खरे लोगों के साथ तू खरा है।
26 हे यहोवा शुद्ध के साथ तू अपने को शुद्ध दिखाता है, और टेढ़ों के साथ तू तिछर बनता है।
 किन्तु, तू नीच और कुटिल जनों से भी चतुर है।
27 हे यहोवा, तू नम्र जनों के लिये सहाय है,
 किन्तु जिनमें अहंकार भरा है उन मनुष्यों को तू बड़ा नहीं बनने देता।
28 हे यहोवा, तू मेरा जलता दीप है।
 हे मेरे परमेश्वर तू मेरे अधंकार को ज्योति में बदलता है!
29 हे यहोवा, तेरी सहायता से, मैं सैनिकों के साथ दौड़ सकता हूँ।
 तेरी ही सहायता से, मैं शत्रुओं के प्राचीर लाँघ सकता हूँ।

30 परमेश्वर के विधान पवित्र और उत्तम हैं और यहोवा के शब्द सत्यपूर्ण होते हैं।
 वह उसको बचाता है जो उसके भरोसे हैं।
31 यहोवा को छोड़ बस और कौन परमेश्वर है?
 मात्र हमारे परमेश्वर के और कौन चट्टान है?
32 मुझको परमेश्वर शक्ति देता है।
 मेरे जीवन को वह पवित्र बनाता है।
33 परमेश्वर मेरे चरणों को हिरण की सी तीव्र गति देता है।
 वह मुझे स्थिर बनाता और मुझे चट्टानी शिखरों से गिरने से बचाता है।
34 हे यहोवा, मुझको सिखा कि युद्ध मैं कैसे लडूँ?
 वह मेरी भुजाओं को शक्ति देता है जिससे मैं काँसे के धनुष की डोरी खींच सकूँ।

35 हे परमेश्वर, अपनी ढाल से मेरी रक्षा कर।
 तू मुझको अपनी दाहिनी भुजा से
 अपनी महान शक्ति प्रदान करके सहारा दे।
36 हे परमेश्वर, तू मेरे पाँवों को और टखनों को दृढ़ बना
 ताकि मैं तेजी से बिना लड़खड़ाहट के बढ़ चलूँ।

समीक्षा

आत्मविश्वास

दाऊद एक ऐसे लीडर थे जिसमें आत्मविश्वास था। मगर यह, आत्मविश्वास नहीं, बल्कि परमेश्वर में विश्वास था: ‘क्योंकि तेरी सहायता से मैं सेना पर धावा करता हूँ; और अपने परमेश्वर की सहायता से शहरपनाह को लांघ जाता हूँ’ (पद - 29)। दाऊद जान जाते हैं कि उन्हें परमेश्वर की सहायता इन बातों के लिए चाहिये:

  1. सुरक्षा:

‘वह अपने सब शरणागतों की ढाल है’ (पद - 30ब)। ‘तू ने मुझ को अपने बचाव की ढाल दी है’ (पद - 35)।

  1. ताकत के लिए

‘यह वही ईश्वर है, जो सामर्थ से मेरा कटिबन्ध बान्धता है, और मेरे मार्ग को सिद्ध करता है। वही मेरे पैरों को हरणियों के पैरों के समान बनाता है, और मुझे मेरे ऊंचे स्थानों पर खड़ा करता है’ (पद - 32-33)।

  1. प्रशिक्षण के लिए

‘वह मेरे हाथों को युद्ध करना सिखाता है, ’ (पद - 34अ)। मैं इस भजन को सन 1992 में पढ़ रहा था और इस वचन ने मुझे यह एहसास दिलाया कि प्रत्येक अल्फा के शुरू होने से पहले हमें लीडर्स को (छोटे समूह के आयोजनकर्ताओं और सहकर्मियों को) प्रशिक्षित करना चाहिये। यह ‘अल्फा ट्रेनिंग’ का मूल था।

  1. मार्गदर्शन के लिए

‘तू ही मेरे दीपक को जलाता है; मेरा परमेश्वर, यहोवा मेरे अन्धियारे को उजियाला कर देता है’ (पद - 28)। ‘ईश्वर का मार्ग सच्चाई; यहोवा का वचन ताया हुआ है’ (पद - 30अ)।

प्रार्थना

प्रभु, मुझे आपकी मदद चाहिये। मैं आपसे सुरक्षा, सामर्थ और मार्गदर्शन पाने के लिए प्रार्थना करता हूँ। मुझे अपने सिद्ध मार्ग पर चलाइये।

नए करार

मत्ती 23:1-39

यीशु द्वारा यहूदी धर्म-नेताओं की आलोचना

23यीशु ने फिर अपने शिष्यों और भीड़ से कहा। 2 उसने कहा, “यहूदी धर्म शास्त्री और फ़रीसी मूसा के विधान की व्याख्या के अधिकारी हैं। 3 इसलिए जो कुछ वे कहें उस पर चलना और उसका पालन करना। किन्तु जो वे करते हैं वह मत करना। मैं यह इसलिए कहता हूँ क्योंकि वे बस कहते हैं पर करते नहीं हैं। 4 वे लोगों के कंधों पर इतना बोझ लाद देते हैं कि वे उसे उठा कर चल ही न सकें और लोगों पर दबाव डालते हैं कि वे उसे लेकर चलें। किन्तु वे स्वयं उनमें से किसी पर भी चलने के लिए पाँव तक नहीं हिलाते।

5 “वे अच्छे कर्म इसलिए करते हैं कि लोग उन्हें देखें। वास्तव में वे अपने ताबीज़ों और पोशाकों की झालरों को इसलिये बड़े से बड़ा करते रहते हैं ताकि लोग उन्हें धर्मात्मा समझें। 6 वे उत्सवों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान पाना चाहते हैं। आराधनालयों में उन्हें प्रमुख आसन चाहिये। 7 बाज़ारों में वे आदर के साथ नमस्कार कराना चाहते हैं। और चाहते हैं कि लोग उन्हें ‘रब्बी’ कहकर संबोधित करें।

8 “किन्तु तुम लोगों से अपने आप को ‘रब्बी’ मत कहलवाना क्योंकि तुम्हारा सच्चा गुरु तो बस एक है। और तुम सब केवल भाई बहन हो। 9 धरती पर लोगों को तुम अपने में से किसी को भी ‘पिता’ मत कहने देना। क्योंकि तुम्हारा पिता तो बस एक ही है, और वह स्वर्ग में है। 10 न ही लोगों को तुम अपने को स्वामी कहने देना क्योंकि तुम्हारा स्वामी तो बस एक ही है और वह मसीह है। 11 तुममें सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति वही होगा जो तुम्हारा सेवक बनेगा। 12 जो अपने आपको उठायेगा, उसे नीचा किया जाएगा और जो अपने आपको नीचा बनाएगा, उसे उठाया जायेगा।

13 “अरे कपटी धर्मशास्त्रियों! और फरीसियों! तुम्हें धिक्कार है। तुम लोगों के लिए स्वर्ग के राज्य का द्वार बंद करते हो। न तो तुम स्वयं उसमें प्रवेश करते हो और न ही उनको जाने देते हो जो प्रवेश के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। 14

15 “अरे कपटी धर्मशास्त्रियों और फरीसियों! तुम्हें धिक्कार है। तुम किसी को अपने पंथ में लाने के लिए धरती और समुद्र पार कर जाते हो। और जब वह तुम्हारे पंथ में आ जाता है तो तुम उसे अपने से भी दुगुना नरक का पात्र बना देते हो!

16 “अरे अंधे रहनुमाओं! तुम्हें धिक्कार है जो कहते हो यदि कोई मन्दिर की सौगंध खाता है तो उसे उस शपथ को रखना आवश्यक नहीं है किन्तु यदि कोई मन्दिर के सोने की शपथ खाता है तो उसे उस शपथ का पालन आवश्यक है। 17 अरे अंधे मूर्खो! बड़ा कौन है? मन्दिर का सोना या वह मन्दिर जिसने उस सोने को पवित्र बनाया।

18 “तुम यह भी कहते हो ‘यदि कोई वेदी की सौगंध खाता है तो कुछ नहीं,’ किन्तु यदि कोई वेदी पर रखे चढ़ावे की सौगंध खाता है तो वह अपनी सौगंध से बँधा है। 19 अरे अंधो! कौन बड़ा है? वेदी पर रखा चढ़ावा या वह वेदी जिससे वह चढ़ावा पवित्र बनता है? 20 इसलिये यदि कोई वेदी की शपथ लेता है तो वह वेदी के साथ वेदी पर जो रखा है, उस सब की भी शपथ लेता है। 21 वह जो मन्दिर है, उसकी भी शपथ लेता है। वह मन्दिर के साथ जो मन्दिर के भीतर है, उसकी भी शपथ लेता है। 22 और वह जो स्वर्ग की शपथ लेता है, वह परमेश्वर के सिंहासन के साथ जो उस सिंहासन पर विराजमान हैं उसकी भी शपथ लेता है।

23 “अरे कपटी यहूदी धर्मशास्त्रियों और फरीसियों! तुम्हारा जो कुछ है, तुम उसका दसवाँ भाग, यहाँ तक कि अपने पुदीने, सौंफ और जीरे तक के दसवें भाग को परमेश्वर को देते हो। फिर भी तुम व्यवस्था की महत्वपूर्ण बातों यानी न्याय, दया और विश्वास का तिरस्कार करते हो। तुम्हें उन बातों की उपेक्षा किये बिना इनका पालन करना चाहिये था। 24 ओ अंधे रहनुमाओं! तुम अपने पानी से मच्छर तो छानते हो पर ऊँट को निगल जाते हो।

25 “अरे कपटी यहूदी धर्मशास्त्रियों! और फरीसियों! तुम्हें धिक्कार है। तुम अपनी कटोरियाँ और थालियाँ बाहर से तो धोकर साफ करते हो पर उनके भीतर जो तुमने छल कपट या अपने लिये रियासत में पाया है, भरा है। 26 अरे अंधे फरीसियों! पहले अपने प्याले को भीतर से माँजो ताकि भीतर के साथ वह बाहर से भी स्वच्छ हो जाये।

27 “अरे कपटी यहूदी धर्मशास्त्रियों! और फरीसियों! तुम्हें धिक्कार है। तुम लिपी-पुती समाधि के समान हो जो बाहर से तो सुंदर दिखती हैं किन्तु भीतर से मरे हुओं की हड्डियों और हर तरह की अपवित्रता से भरी होती हैं। 28 ऐसे ही तुम बाहर से तो धर्मात्मा दिखाई देते हो किन्तु भीतर से छलकपट और बुराई से भरे हुए हो।

29 “अरे कपटी यहूदी धर्मशास्त्रियों! और फरीसियों! तुम नबियों के लिये स्मारक बनाते हो और धर्मात्माओं की कब्रों को सजाते हो। 30 और कहते हो कि ‘यदि तुम अपने पूर्वजों के समय में होते तो नबियों को मारने में उनका हाथ नहीं बटाते।’ 31 मतलब यह कि तुम मानते हो कि तुम उनकी संतान हो जो नबियों के हत्यारे थे। 32 सो जो तुम्हारे पुरखों ने शुरु किया, उसे पूरा करो।

33 “अरे साँपों और नागों की संतानों! तुम कैसे सोचते हो कि तुम नरक भोगने से बच जाओगे। 34 इसलिये मैं तुम्हें बताता हूँ कि मैं तुम्हारे पास नबियों, बुद्धिमानों और गुरुओं को भेज रहा हूँ। तुम उनमें से बहुतों को मार डालोगे और बहुतों को क्रूस पर चढ़ाओगे। कुछ एक को तुम अपनी आराधनालयों में कोड़े लगवाओगे और एक नगर से दूसरे नगर उनका पीछा करते फिरोगे।

35 “परिणामस्वरूप निर्दोष हाबील से लेकर बिरिक्याह के बेटे जकरयाह तक जिसे तुमने मन्दिर के गर्भ गृह और वेदी के बीच मार डाला था, हर निरपराध व्यक्ति की हत्या का दण्ड तुम पर होगा। 36 मैं तुम्हें सत्य कहता हूँ इस सब कुछ के लिये इस पीढ़ी के लोगों को दंड भोगना होगा।”

यरूशलेम के लोगों पर यीशु को खेद

37 “ओ यरूशलेम, यरूशलेम! तू वह है जो नबियों की हत्या करता है और परमेश्वर के भेजे दूतों को पत्थर मारता है। मैंने कितनी बार चाहा है कि जैसे कोई मुर्गी अपने चूज़ों को अपने पंखों के नीचे इकट्ठा कर लेती है वैसे ही मैं तेरे बच्चों को एकत्र कर लूँ। किन्तु तुम लोगों ने नहीं चाहा। 38 अब तेरा मन्दिर पूरी तरह उजड़ जायेगा। 39 सचमुच मैं तुम्हें बताता हूँ तुम मुझे तब तक फिर नहीं देखोगे जब तक तुम यह नहीं कहोगे: ‘धन्य है वह जो प्रभु के नाम पर आ रहा है!’ ”

समीक्षा

चरित्र

यीशु अपने दिनों के धार्मिक गुरूओं पर कड़े शब्दों में आलोचना करते हैं: ‘हे सांपो, हे करैतों के बच्चों’ (पद - 33)। इस भाषा ने लोगों को पूरी तरह से धक्का पहुँचाया। अब ‘शास्त्रियों और फरीसियों’ के बारे में हमारी कल्पना पूरी तरह से अलग है जिस तरह से वे उस समय बर्ताव करते थे। वे लोग अत्यधिक सम्माननीय और आदरणीय लोग थे।

शास्त्री वकील हुआ करते थे। उन्होंने कानून को संरक्षित किया था और उनका अर्थ बतलाया था। उन्हें न्यायाधीश के रूप में कार्य करने का अधिकार प्राप्त था। काफी अध्ययन करने के बाद उन्हें नियुक्त किया जाता था। वे लोग गुरू थे और उनके आसपास चेले जमा हुआ करते थे।

फरीसी जनसाधारण लोग थे। वे मध्यम वर्ग से हुआ करते थे (सदूकियों के विपरीत जो कि ज़्यादा वैभवशाली होते थे। धार्मिकता के कारण वे ज़्यादा आदरणीय होते थे। उन्होंने अक्सर प्रार्थना और उपवास किया था। उन्होंने सभाओं में भाग लिया था। वे नियमित रूप से दान दिया करते थे। उन्होंने ‘खराई, और नैतिक’ जीवन जीया। उनका समाज में बहुत बड़ा प्रभाव था। साधारण लोगों द्वारा उनकी काफी प्रशंसा की जाती थी।

फिर भी, उनके कपटी होने के कारण यीशु उनकी आलोचना करते हैं : ‘इसलिये वे तुम से जो कुछ कहें वह करना, और मानना; परन्तु उन के से काम मत करना; क्योंकि वे कहते तो हैं पर करते नहीं’ (पद - 3)।

अच्छे प्रभावशाली व्यक्ति बनने के लिए यीशु के ‘सात शोक’ हमें सात अच्छे गुण विकसित करने के लिए प्रेरित करते हैं :

  1. सच्चाई

धार्मिक गुरूओं के कपटी होने के कारण यीशु उनकी आलोचना करते हैं (पद - 3-4)। वह कहते हैं, ‘परन्तु उन के से काम मत करना; क्योंकि वे कहते तो हैं पर करते नहीं। वे एक ऐसे भारी बोझ को जिन को उठाना कठिन है, बान्धकर उन्हें मनुष्यों के कन्धों पर रखते हैं; परन्तु आप उन्हें अपनी उंगली से भी सरकाना नहीं चाहते’ (पद - 3ब-4)। सच्चाई इसके विपरीत है, इसका मतलब है वही करना जिसका आप प्रचार करते हैं, और इस बात का ध्यान रखना कि आपके शब्द लोगों को उठाएं, ना कि उन्हें दोष और अन्य बोझ के तले दबा दें।

  1. प्रमाणिकता

यीशु स्पष्ट रूप से उनकी आलोचना करते हैं (पद - 5-7)। वह उनसे कहते हैं, ‘वे अपने सब काम लोगों को दिखाने के लिये करते हैं’ (पद - 5अ)। लेकिन महत्त्वपूर्ण यह है कि जब कोई नहीं देखता तब आप कैसे रहते हैं। यीशु परमेश्वर के साथ आपके ‘रहस्य’ जीवन के बारे में कह रहे हैं। परमेश्वर के साथ प्रमाणिक निजी - जीवन बनाने का प्रयास करें।

  1. नम्रता

यीशु पदों और पहचाने जाने से प्यार करने के विरूद्ध चेतावनी देते हैं (पद - 8-11)। यीशु आपको सचेत रहने के लिए कहते हैं ताकि आप ‘मुख्य जगहों’, ‘सभा में मुख्य स्थानों’ के प्रलोभन में न पड़ें (पद - 6-7, एम.एस.जी.)। यीशु सचेत करते हैं कि, ‘तुम रब्बी न कहलाना; क्योंकि तुम्हारा एक ही गुरू है: और तुम सब भाई हो’ (पद - 8)। यह बहुत बड़ा प्रलोभन है लेकिन यीशु कहते हैं, ‘जो कोई अपने आप को बड़ा बनाएगा, वह छोटा किया जाएगा: और जो कोई अपने आप को छोटा बनाएगा, वह बड़ा किया जाएगा’ (पद - 12)। हमेशा खुद को ऊँचा करने के बजाय यीशु को ऊँचा उठाएं।

  1. करूणा

दूसरों के लिए मार्ग में रूकावटें पैदा करने के लिए यीशु धर्म गुरूओं की आलोचना करते हैं (पद - 13-15)। ‘तुम मनुष्यों के विरोध में स्वर्ग के राज्य का द्वार बन्द करते हो, न तो आप ही उस में प्रवेश करते हो और न उस में प्रवेश करने वालों को प्रवेश करने देते हो’ (पद - 13)। लीडर्स की भावना इसके ठीक विपरीत होनी चाहिये – जो हर एक के लिए खुला हो और उनका स्वागत करे।

यीशु स्वयं करूणा का उदाहरण स्थापित करते हैं। वह कहते हैं, ‘हे यरूशलेम, हे यरूशलेम….. कितनी ही बार मैं ने चाहा कि जैसे मुर्गी अपने बच्चों को अपने पंखों के नीचे इकट्ठा करती है, वैसे ही मैं भी तुम्हारे बालकों को इकट्ठा कर लूं, परन्तु तुम ने न चाहा’ (पद - 37)।

  1. दर्शन

लीडर्स का दर्शन बड़ा होना चाहिये। यीशु धार्मिक गुरूओं की छोटी सोच और संकीर्णता की आलोचना करते हैं (पद - 16-22)। ‘मूर्खतापूर्ण तरीके से बाल की खाल खींचना!’ (पद - 19, एम.एस.जी.)। वे आँख का लठ्ठा नहीं देख पाते थे। आपको महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये, परमेश्वर के दर्शन के लिए प्रार्थना करनी चाहिये और इससे भटकना नहीं चाहिये। परमेश्वर से दर्शन मांगिये जो इतना बड़ा हो कि परमेश्वर के बिना इसका पूरा होना असंभव लगे।

  1. ध्यान केन्द्रित करना

उस पर ध्यान लगाएं जो सच में मायने रखता हो (पद - 23-24)। छोटी से बात में पकड़े जाना और विधि सम्मत होना टालें। यीशु कहते हैं, ‘हे अन्धे अगुवों, तुम मच्छर को तो छान डालते हो, परन्तु ऊंट को निगल जाते हो’ (पद - 24)। बजाय इसके ‘हमें व्यवस्था की गम्भीर बातों पर अर्थात न्याय, और दया, और विश्वास पर ज़्यादा ध्यान देना है’ (पद - 23)। अन्याय और गरीबी के विरूद्ध लड़ें; और अपने परिवारवालों और दूसरों के साथ ‘विश्वासयोग्यता’ दर्शाएं।

  1. उदारता

यह लालच और असंयमता के विपरीत है, जिसकी यीशु निंदा करते हैं (पद - 25-28)। उनका आंतरिक जीवन, बाहरी जीवन से बहुत ही अलग था। यीशु आपको एक जैसा बने रहने के लिए बुलाते हैं – जैसे बाहर हैं वैसे ही अंदर होने के लिए (पद - 27-28)।

यह बहुत ही ऊँचा मापदंड है और उसे पाना बहुत मुश्किल है। यहाँ यीशु के शब्द ‘शोक’ की चरम सीमा है (पद - 29-36), इस बात को ध्यान में रखना चाहिये कि ये शब्द साधारण लोगों को नहीं कहे गये थे। यीशु ताकतवर अगुओं की निंदा कर रहे थे जो खुद को ‘ऊँचा करने’ की कोशिश कर रहे थे (पद - 12) और जिन्होंने ‘मनुष्यों के विरोध में स्वर्ग के राज्य का द्वार बन्द कर दिया था’ (पद - 13)।

हमें साधारण लोगों को या बल्कि उन अगुओं को धमकाने के लिए इन शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिये जो सच में लोगों को यीशु की तरफ ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। वे इन शब्दों से चुनौती देते हैं – लेकिन यह चुनौती गलत लोगों की तरफ नहीं होनी चाहिये!

यीशु के शब्दों के बारे में विस्मयकारी बात यह है कि मानवीय रूप से देखा जाए तो वह बड़ी कमज़ोर स्थिति में थे और फिर भी वह अपने दिनों में अधिकार जमाने से नहीं डरे।

प्रार्थना

प्रभु, मुझे उन समयों के लिए क्षमा कीजिये जब मैं इन क्षेत्रों में असफल हुआ था। मुझे सच्चाई, प्रमाणिकता, नम्रता, करूणा, दर्शन, केंद्रित और उदारता का जीवन जीने में मेरी मदद कीजिये। जिस तरह से यीशु अपने शहर के बारे में चिंतित थे उसी तरह से मुझे भी चिंता करने में मदद कीजिये।

जूना करार

अय्यूब 33:1-34:37

33“किन्तु अय्यूब अब, मेरा सन्देश सुन।
 उन बातों पर ध्यान दे जिनको मैं कहता हूँ।
2 मैं अपनी बात शीघ्र ही कहनेवाला हूँ, मैं अपनी बात कहने को लगभग तैयार हूँ।
3 मन मेरा सच्चा है सो मैं सच्चा शब्द बोलूँगा।
 उन बातों के बारे में जिनको मैं जानता हूँ मैं सत्य कहूँगा।
4 परमेश्वर की आत्मा ने मुझको बनाया है,
 मुझे सर्वशक्तिशाली परमेश्वर से जीवन मिलता है।
5 अय्यूब, सुन और मुझे उत्तर दे यदि तू सोचता है कि तू दे सकता है।
 अपने उत्तरों को तैयार रख ताकि तू मुझसे तर्क कर सके।
6 परमेश्वर के सम्मुख हम दोनों एक जैसे हैं,
 और हम दोनों को ही उसने मिट्टी से बनाया है।
7 अय्यूब, तू मुझ से मत डर।
 मैं तेरे साथ कठोर नहीं होऊँगा।

8 “किन्तु अय्यूब, मैंने सुना है कि
 तू यह कहा करता हैं,
9 तूने कहा था, कि मैं अय्यूब, दोषी नहीं हूँ, मैंने पाप नहीं किया,
 अथवा मैं कुछ भी अनुचित नहीं करता हूँ, मैं अपराधी नहीं हूँ।
10 यद्यपि मैंने कुछ भी अनुचित नहीं किया, तो भी परमेश्वर ने कुछ खोट मुझ में पाया है।
 परमेश्वर सोचता है कि मैं अय्यूब, उसका शत्रु हूँ।
11 इसलिए परमेश्वर मेरे पैरों में काठ डालता है,
 मैं जो कुछ भी करता हूँ वह देखता रहता है।

12 “किन्तु अय्यूब, मैं तुझको निश्चय के साथ बताता हूँ कि तू इस विषय में अनुचित है।
 क्यों? क्योंकि परमेश्वर किसी भी व्यक्ति से अधिक जानता है।
13 अय्यूब, तू क्यों शिकायत करता है और क्यों परमेश्वर से बहस करता है? तू क्यों शिकायत करता है कि
 परमेश्वर तुझे हर उस बात के विषय में जो वह करता है स्पष्ट क्यों नहीं बताता है?
14 किन्तु परमेश्वर निश्चय ही हर उस बात को जिसको वह करता है स्पष्ट कर देता है।
 परमेश्वर अलग अलग रीति से बोलता है किन्तु लोग उसको समझ नहीं पाते हैं।
15 सम्भव है कि परमेश्वर स्वप्न में लोगों के कान में बोलता हो,
 अथवा किसी दिव्यदर्शन में रात को जब वे गहरी नींद में हों।
16 जब परमेश्वर की चेतावनियाँ सुनते है
 तो बहुत डर जाते हैं।
17 परमेश्वर लोगों को बुरी बातों को करने से रोकने को सावधान करता है,
 और उन्हें अहंकारी बनने से रोकने को।
18 परमेश्वर लोगों को मृत्यु के देश में जाने से बचाने के लिये सावधान करता है।
 परमेश्वर मनुष्य को नाश से बचाने के लिये ऐसा करता है।

19 “अथवा कोई व्यक्ति परमेश्वर की वाणी तब सुन सकता है जब वह बिस्तर में पड़ा हों और परमेश्वर के दण्ड से दु:ख भोगता हो।
 परमेश्वर पीड़ा से उस व्यक्ति को सावधान करता है।
 वह व्यक्ति इतनी गहन पीड़ा में होता है, कि उसकी हड्डियाँ दु:खती है।
20 फिर ऐसा व्यक्ति कुछ खा नहीं पाता, उस व्यक्ति को पीड़ा होती है
 इतनी अधिक की उसको सर्वोत्तम भोजन भी नहीं भाता।
21 उसके शरीर का क्षय तब तक होता जाता है जब तक वह कंकाल मात्र नहीं हो जाता,
 और उसकी सब हड्डियाँ दिखने नहीं लग जातीं!
22 ऐसा व्यक्ति मृत्यु के देश के निकट होता है, और उसका जीवन मृत्यु के निकट होता है।
 किन्तु हो सकता है कि कोई स्वर्गदूत हो जो उसके उत्तम चरित्र की साक्षी दे।
23 परमेश्वर के पास हजारों ही स्वर्गदूत हैं।
 फिर वह स्वर्गदूत उस व्यक्ति के अच्छे काम बतायेगा।
24 वह स्वर्गदूत उस व्यक्ति पर दयालु होगा, वह दूत परमेश्वर से कहेगा:
  ‘इस व्यक्ति की मृत्यु के देश से रक्षा हो!
  इसका मूल्य चुकाने को एक राह मुझ को मिल गयी है।’
25 फिर व्यक्ति की देह जवान और सुदृढ़ हो जायेगी।
 वह व्यक्ति वैसा ही हो जायेगा जैसा वह तब था, जब वह जवान था।
26 वह व्यक्ति परमेश्वर की स्तुति करेगा और परमेश्वर उसकी स्तुति का उत्तर देगा।
  वह फिर परमेश्वर को वैसा ही पायेगा जैसे वह उसकी उपासना करता है, और वह अति प्रसन्न होगा।
  क्योंकि परमेश्वर उसे निरपराध घोषित कर के पहले जैसा जीवन कर देगा।
27 फिर वह व्यक्ति लोगों के सामने स्वीकार करेगा। वह कहेगा: ‘मैंने पाप किये थे,
  भले को बुरा मैंने किया था,
  किन्तु मुझे इससे क्या मिला!
28 परमेश्वर ने मृत्यु के देश में गिरने से मेरी आत्मा को बचाया।
 मैं और अधिक जीऊँगा और फिर से जीवन का रस लूँगा।’

29 “परमेश्वर व्यक्ति के साथ ऐसा बार—बार करता है,
30 उसको सावधान करने को और उसकी आत्मा को मृत्यु के देश से बचाने को।
 ऐसा व्यक्ति फिर जीवन का रस लेता है।

31 “अय्यूब, ध्यान दे मुझ पर, तू बात मेरी सुन,
 तू चुप रह और मुझे कहने दे।
32 अय्यूब, यदि तेरे पास कुछ कहने को है तो मुझको उसको सुनने दे।
 आगे बढ़ और बता,
 क्योंकि मैं तुझे निर्दोंष देखना चाहता हूँ।
33 अय्यूब, यदि तूझे कुछ नहीं कहना है तो तू मेरी बात सुन।
 चुप रह, मैं तुझको बुद्धिमान बनना सिखाऊँगा।”

34फिर एलीहू ने बात को जारी रखते हुये कहा:

2 “अरे ओ विवेकी पुरुषों तुम ध्यान से सुनो जो बातें मैं कहता हूँ।
 अरे ओ चतुर लोगों, मुझ पर ध्यान दो।
3 कान उन सब को परखता है जिनको वह सुनता है,
 ऐसे ही जीभ जिस खाने को छूती है, उसका स्वाद पता करती है।
4 सो आओ इस परिस्थिति को परखें और स्वयं निर्णय करें की उचित क्या है।
 हम साथ साथ सीखेंगे की क्या खरा है।
5 अय्यूब ने कहा: ‘मैं निर्दोष हूँ,
 किन्तु परमेश्वर मेरे लिये निष्पक्ष नहीं है।
6 मैं अच्छा हूँ लेकिन लोग सोचते हैं कि मैं बुरा हूँ।
 वे सोचते हैं कि मैं एक झूठा हूँ और चाहे मैं निर्दोंष भी होऊँ फिर भी मेरा घाव नहीं भर सकता।’

7 “अय्यूब के जैसा कोई भी व्यक्ति नहीं है
 जिसका मुख परमेश्वर की निन्दा से भरा रहता है।
8 अय्यूब बुरे लोगों का साथी है
 और अय्यूब को बुरे लोगों की संगत भाती है।
9 क्योंकि अय्यूब कहता है
 ‘यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर की आज्ञा मानने का जतन करता है तो इससे उस व्यक्ति का कुछ भी भला न होगा।’

10 “अरे ओं लोगों जो समझ सकते हो, तो मेरी बात सुनो,
 परमेश्वर कभी भी बुरा नहीं करता है।
 सर्वशक्तिशाली परमेश्वर कभी भी बुरा नहीं करेगा।
11 परमेश्वर व्यक्ति को उसके किये कर्मो का फल देगा।
 वह लोगों को जो मिलना चाहिये देगा।
12 यह सत्य है परमेश्वर कभी बुरा नहीं करता है।
 सर्वशक्तिशाली परमेश्वर सदा निष्पक्ष रहेगा।
13 परमेश्वर सर्वशक्तिशाली है, धरती का अधिकारी, उसे किसी व्यक्ति ने नहीं बनाया।
 किसी भी व्यक्ति ने उसे इस समूचे जगत का उत्तरदायित्व नहीं दिया।
14 यदि परमेश्वर निश्चय कर लेता कि
 लोगों से आत्मा और प्राण ले ले,
15 तो धरती के सभी व्यक्ति मर जाते,
 फिर सभी लोग मिट्टी बन जाते।

16 “यदि तुम लोग विवेकी हो
 तो तुम उसे सुनोगे जिसे मैं कहता हूँ।
17 कोई ऐसा व्यक्ति जो न्याय से घृणा रखता है शासक नहीं बन सकता।
 अय्यूब, तू क्या सोचता है,
 क्या तू उस उत्तम और सुदृढ़ परमेश्वर को दोषी ठहरा सकता है
18 केवल परमेश्वर ऐसा है जो राजाओं से कहा करता है कि ‘तुम बेकार के हो।’
 परमेश्वर मुखियों से कहा करता है कि ‘तुम दुष्ट हो।’
19 परमेश्वर प्रमुखों से अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक प्रेम नहीं करता,
 और परमेश्वर धनिकों की अपेक्षा गरीबों से अधिक प्रेम नहीं करता है।
 क्योंकि सभी परमेश्वर ने रचा है।
20 सम्भव है रात में कोई व्यक्ति मर जाये, परमेश्वर बहुत शीघ्र ही लोगों को रोगी करता है और वे प्राण त्याग देते हैं।
 परमेश्वर बिना किसी जतन के शक्तिशाली लोगों को उठा ले जाता है,
 और कोई भी व्यक्ति उन लोगों को मदद नहीं दे सकता है।

21 “व्यक्ति जो करता है परमेश्वर उसे देखता है।
 व्यक्ति जो भी चरण उठाता है परमेश्वर उसे जानता है।
22 कोई जगह अंधेरे से भरी हुई नहीं है, और कोई जगह ऐसी नहीं है
 जहाँ इतना अंधेरा हो कि कोई भी दुष्ट व्यक्ति अपने को परमेश्वर से छिपा पाये।
23 किसी व्यक्ति के लिये यह उचित नहीं है कि
 वह परमेश्वर से न्यायालय में मिलने का समय निश्चित करे।
24 परमेश्वर को प्रश्नों के पूछने की आवश्यकता नहीं,
 किन्तु परमेश्वर बलशालियों को नष्ट करेगा
 और उनके स्थान पर किसी
 और को बैठायेगा।
25 सो परमेश्वर जानता है कि लोग क्या करते हैं।
 इसलिये परमेश्वर रात में दुष्टों को हरायेगा, और उन्हें नष्ट कर देगा।
26 परमेश्वर बुरे लोगों को उनके बुरे कर्मो के कारण नष्ट कर देगा
 और बुरे व्यक्ति के दण्ड को वह सब को देखने देगा।
27 क्योंकि बुरे व्यक्ति ने परमेश्वर की आज्ञा मानना छोड़ दिया
 और वे बुरे व्यक्ति परवाह नहीं करते हैं उन कामों को करने की जिनको परमेश्वर चाहता है।
28 उन बुरे लोगों ने गरीबों को दु:ख दिया और उनको विवश किया परमेश्वर को सहायता हेतू पुकारने को।
 गरीब सहायता के लिये पुकारता है, तो परमेश्वर उसकी सुनता है।
29 किन्तु यदि परमेश्वर ने गरीब की सहायता न करने का निर्णय लिया तो
 कोई व्यक्ति परमेश्वर को दोषी नहीं ठहरा सकता है।
 यदि परमेश्वर उनसे मुख मोड़ता है तो कोई भी उस को नहीं पा सकता है।
 परमेश्वर जातियों और समूची मानवता पर शासन करता है।
30 तो फिर एक ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर के विरुद्ध है और लोगों को छलता है,
 तो परमेश्वर उसे राजा बनने नहीं दे सकता है।

31 “सम्भव है कि कोई परमेश्वर से कहे कि
 मैं अपराधी हूँ और फिर मैं पाप नहीं करूँगा।
32 हे परमेश्वर, तू मुझे वे बातें सिखा जो मैं नहीं जानता हूँ।
 यदि मैंने कुछ बुरा किया तो फिर, मैं उसको नहीं करूँगा।
33 किन्तु अय्यूब, जब तू बदलने को मना करता है,
 तो क्या परमेश्वर तुझे वैसा प्रतिफल दे,
 जैसा प्रतिफल तू चाहता है? यह तेरा निर्णय है यह मेरा नहीं है।
 तू ही बता कि तू क्या सोचता है?
34 कोई भी व्यक्ति जिसमें विवेक है और जो समझता है वह मेरे साथ सहमत होगा।
 कोई भी विवेकी जन जो मेरी सुनता, वह कहेगा,
35 अय्यूब, अबोध व्यक्ति के जैसी बातें करता है,
 जो बाते अय्यूब करता है उनमें कोई तथ्य नहीं।
36 मेरी यह इच्छा है कि अय्यूब को परखने को और भी अधिक कष्ट दिये जाये।
 क्यों? क्योंकि अय्यूब हमें ऐसा उत्तर देता है, जैसा कोई दुष्ट जन उत्तर देता हो।
37 अय्यूब पाप पर पाप किए जाता है और उस पर उसने बगावत की।
 तुम्हारे ही सामने वह परमेश्वर को बहुत बहुत बोल कर कलंकित करता रहता है!”

समीक्षा

आलोचना

जैसा कि रिक वारेन ने बताया है, ‘आलोचना, एक प्रभाव का मूल्य है। जब तक कि आप किसी को प्रभावित नहीं करते, कोई भी आपके बारे में चूँ चां नहीं कर सकता। लेकिन आपका प्रभाव जितना ज़्यादा होगा…. आपके पास उतने ही ज़्यादा शहर होंगे।’

बेचारा अय्यूब, जो कि अगुआई करने की स्थिति में था (अध्याय 1 देखें), उसे अपने आलोचकों से लगातार कड़ी निंदा सुननी पड़ी। यह ज़्यादा परेशान करने वाली बात है क्योंकि यह उसके कथित ‘दोस्तों’ से आयी थी। आलोचना हमेशा सबसे ज़्यादा दु:खदाई होती है जब यह उन लोगों से आती है जिन्हें आपका मित्र होना चाहिये था। यह बड़े दु:ख की बात है जब मसीही लीडर्स को आलोचना स्वयं चर्च से मिलती है – उनके कथित ‘दोस्तों’ से।

एलीहू की बातें सुनना अय्यूब के लिए सच में कष्टप्रद रहा होगा, जो कि उससे छोटा था फिर भी अपने खुद के अनुभव से उसने अय्यूब से मूर्खतापूर्ण बातें कीं, ‘मैं तुझे बुद्धि की बात सिखाऊंगा’ (33:33) पर ‘अय्यूब ज्ञान की बातें नहीं कहता, और न उसके वचन समझ के साथ होते हैं’ (34:35)। और यह परामर्श देने के लिए, क्योंकि वह आलोचना से सहमत नहीं था, ‘वह अपने पाप में विरोध बढ़ाता है; ओर हमारे बीच ताली बजाता है, और ईश्वर के विरुद्ध बहुत सी बातें बताता है’ (पद - 37)।

एलीहू, जैसे बहुत से आलोचक, ‘सोच विचार कर कहने’ और ‘अपने मन की बात सिधाई से प्रगट करने’ का दावा करते हैं (33:2-3)। वह दावा करता है कि अन्य लोग उसके साथ सहमत हैं, ‘सब ज्ञानी पुरुष वरन जितने बुद्धिमान मेरी सुनते हैं वे मुझ से कहेंगे, कि अय्यूब ज्ञान की बातें नहीं कहता, और न उसके वचन समझ के साथ होते हैं’ (34:34-35)।

हम खुद भी ऊपरी तरीके से परमेश्वर के लोगों का न्याय करने के जाल में फंस सकते हैं, जैसा कि एलीहू ने किया था। दूसरों की आलोचना करने के खतरे से सावधान रहें।

हालाँकि यह बताया जा चुका है कि अब तक किसी भी आलोचक का स्मारक नहीं बना है, फिर भी यह हम सब को आलोचक बनने की चाहत से नहीं रोक पाता। आप दूसरों के बारे में क्या कहते हैं उसके प्रति बहुत सावधान रहिये। और यदि आपकी आलोचना की जा रही है, तो आश्चर्यचकित मत होइये।

प्रार्थना

प्रभु, मुझे दूसरों पर दोष लगाने से बचाकर रखिये। जो जीवन में संघर्ष कर रहे हैं उनके प्रति मुझे बुद्धि और संवेदनशीलता दीजिये। मुझे सच्चे गुरू, यीशु मसीह पर अपनी नज़रें टिकाए रखने में, उनकी प्रभुता के अधीन होने में, उनके आदर्शों का अनुसरण करने में, और एक प्रभावशाली व्यक्ति बनने में मेरी मदद कीजिये।

पिप्पा भी कहते है

मुझ में ज़्यादा शारीरिक शक्ति नहीं है, मुझे यह सभी वचन अच्छे लगते हैं: ‘अपने परमेश्वर की सहायता से शहरपनाह को लांघ जाता हूं’ (भजन संहिता 18:29); ‘यह वही ईश्वर है, जो सामर्थ से मेरा कटिबन्ध बान्धता है’ (पद - 32); ‘मुझे मेरे ऊंचे स्थानों पर खड़ा करता है’ (पद - 33ब); ‘वह मेरे हाथों को युद्ध करना सिखाता है’ (पद - 34); ‘तू ने मुझ को अपने बचाव की ढाल दी है’ (पद - 35अ); ‘तू अपने दाहिने हाथ से मुझे सम्भाले हुए है’ (पद - 35ब)। जब मैं थका हुआ महसूस करती हूँ, शारीरिक रूप से चीज़ों के ऊपर नहीं, तो ये शब्द मुझे सच में प्रोत्साहित करते हैं।

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संदर्भ

नोट्स:

जॉन सी मैक्सवेल, डेवलपिंग द लीडर विथइन यू, (थोमस नेल्सन; 1 संस्करण, 2005)

रिक वारेन, मार्क ड्रिस्कोल के साथ हुई बातचीत के दौरान, द क्रिश्चियन पोस्ट, वॉरने, ड्रिस्कोल से: सभी बड़ी कलीसियाएं एक जैसी नहीं होतीं’, 27 अगस्त 2012. http://www.christianpost.com/news/warren-to-driscoll-not-all-megachurches-are-alike-80667/ last accessed January 2016\] से लिया गया है।

जहाँ पर कुछ बताया न गया हो, उन वचनों को पवित्र बाइबल, न्यू इंटरनैशनल संस्करण एन्ग्लिसाइड से लिया गया है, कॉपीराइट © 1979, 1984, 2011 बिबलिका, पहले इंटरनैशनल बाइबल सोसाइटी, हूडर और स्टोगन पब्लिशर की अनुमति से प्रयोग किया गया, एक हॅचेट यूके कंपनी सभी अधिकार सुरक्षित। ‘एनआईवी’, बिबलिका यू के का पंजीकृत ट्रेडमार्क संख्या 1448790 है।

जिन वचनों को (एएमपी, AMP) से चिन्हित किया गया है उन्हें एम्प्लीफाइड® बाइबल से लिया गया है। कॉपीराइट © 1954, 1958, 1962, 1964, 1965, 1987 लॉकमैन फाउंडेशन द्वारा प्राप्त अनुमति से उपयोग किया गया है। (www.Lockman.org)

जिन वचनों को (एम.एस.जी. MSG) से चिन्हित किया गया है उन्हें मैसेज से लिया गया है। कॉपीराइट © 1993, 1994, 1995, 1996, 2000, 2001, 2002. जिनका प्रयोग एनएवीप्रेस पब्लिशिंग ग्रुप की अनुमति से किया गया है।

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